हिंदी के प्रमुख लेखकों और कवियों के जीवन परिचय के क्रम में हम आज आपके लिए एक और महत्वपूर्ण कवि सूरदास का जीवन परिचय (Surdas ka Jeevan Parichay) लेकर आये हैं सूरदास हिंदी साहित्य के महान कवि थे, उनकी पद शैली भाषा के विभिन्न रूपों को संजोती नज़र आती है। सूरदास की भाषा शैली और काव्य विशेषताएं आदि के बारे में जानकारी के लिए इस लेख को पूरा पढ़ें व लेख के अंत में कम्मेंट के माध्यम से अपने विचार भी हमारे साथ जरूर साँझा करें |
Surdas Ka Jivan Parichay
जीवन परिचय– अष्टछाप के महाकवि सूरदास जी का जन्म सन 1478 ई॰ में हुआ। इन्हे परम कृष्ण भक्त के रूप में भी जाना जाता है |
इनके जन्म स्थान को लेकर विद्वानों मे मतभेद हैं। कुछ विद्वान इनका जन्म स्थान दिल्ली तथा फरीदाबाद के बीच सीही (Sihi) में मानते हैं तो कुछ आगरा के समीप ‘रुनकता या रेणुका’ क्षेत्र को मानते हैं | इन्हे यह सारस्वत ब्राह्मण तथा चंद्रबदराई के वंशज माने जाते हैं।
महाकवि सूरदास बचपन से ही यह विलक्षण प्रतिभा के स्वामी तथा गायन में निपुण थे, इसलिए इन्हे बचपन में ही समाज में ख्याति प्राप्त हो गई थी। किशोरावस्थ आते-आते इनका संसार से मोह भंग होने लगा था और ये सबकुछ त्याग मथुरा के विश्राम घाट चले गए थे।
यहाँ कुछ दिन बिताने के बाद वे वृंदावन (मथुरा) के बीच यमुना किनारे गांव घाट पर रहने लगे थे। यहीं पर उनकी भेंट स्वामी बल्लभाचार्य से हुई तथा उन्होंने अब उन्हें अपना गुरु बना लिया। जब सूरदास जी ने बल्लभाचार्य जी को गुरु बनाया उससे पहले ही वे भगवान श्री कृष्ण से संबंधित विनय व दास्य भाव के पद का गायन करते थे, परंतु अपने गुरु की प्रेरणा के बाद में उन्होंने सख्यए वात्सल्य व माधुर्य भाव के पदों की भी रचना की।
इन्हें श्रीनाथजी के मंदिर में भजन कीर्तन के लिए नियुक्त किया गया था। सूरदास जी नेत्रहीन थे परंतु यहअभी तक तय नहीं हो पाया कि यह जन्म से देखने में असमर्थ थे अथवा बाद में हुए। श्रीनाथजी के मंदिर के समीप ही स्थित ‘परसौली’ नामक गांव में संन् 1583 ई॰ में ये ब्रम्ह में लीन हो गए।
सूरदास की आयु “सूरसारावली‘ के अनुसार उस समय ६७ वर्ष थी।
सूरदास की रचनाएं- (Surdas Ki Rachnayen )
सूरदास जी का पाँच लिखित ग्रन्थ पाए जाते हैं:
सूरसागर – जो सूरदास की प्रसिद्ध रचना है। जिसमें सवा लाख पद संग्रहित थे। किंतु अब सात-आठ हजार पद ही मिलते हैं।
सूरसारावली
साहित्य-लहरी – जिसमें उनके कूट पद संकलित हैं।
नल-दमयन्ती
ब्याहलो
‘पद संग्रह’ दुर्लभ पद
इनमें अंतिम दो संग्रह अप्राप्त हैं |
नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित पुस्तकों की विवरण तालिका में सूरदास के 16 ग्रन्थों का उल्लेख है।
सूरसागर
सूरसारावली
साहित्य लहरी
नल-दमयन्ती
ब्याहलो
दशमस्कंध टीका
नागलीला
भागवत्
गोवर्धन लीला
सूरपचीसी
सूरसागर सार
प्राणप्यारी
ग्रन्थ सम्मिलित हैं। इनमें प्रारम्भ के तीन ग्रंथ ही महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं, साहित्य लहरी की प्राप्त प्रति में बहुत प्रक्षिप्तांश जुड़े हुए हैं।
सूर साहित्य के आधार पर आपकी काव्यगत विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
भक्ति भावना- सूरदास जी पुष्टि-मार्ग में दक्ष थे। अतः उन्होंने श्रीकृष्ण को अपना आराध्य मानकर उनकी लीलाओं का वर्णन अधिकांशत पुष्टिमार्गीय सिद्धांतों के अनुरूप ही किया है |
सूरदास ने विनय व दास्य-भाव के पदों की रचना भी की है, परंतु वह इन सभी पदों की रचना इस संप्रदाय में दीक्षित होने के से पूर्व ही रचे गए कर दिया था।
उन्होंने अपने काव्य में नवधा-भक्ति के साधनों-कीर्तन एवं समरण आदि को स्वीकार किया है। सूरदास ने अपने पदों की रचना में माधुर्य-भक्ति व प्रेमा भक्ति का अधिक प्रयोग किया है, इसके लिए उन्होंने गोपियों में राधा को माध्यम बनाया है। यथा –
अखियाँ हरि दरसन की भूखी कैसे रहे रूप रसरांची ये बतियाँ सुनी रूखी।
वात्सल्य वर्णन- सूरदास वात्सल्य पदों की रचना में अद्वितीय हैं। उन्होंने अपने काव्य रचना में बालक श्री कृष्ण की बाल क्रीणाओं का बड़े ही भाव से रचा है, जैसे लगता है की उन्होंने को चित्र ही प्रस्तुत कर दिया हो।
उनका वात्सल्य वर्णन अपने आप में सम्पूर्ण है क्योंकि उन्होंने ये बताया है की कैसे श्री कृष्ण की बाल क्रीड़ा देखा कर पिता नंद जी और माँ यशोदा उल्लसित होतें है।
जब सूरदास जी ने बाल लीला के पदों की रचना की तो मानो वात्सल्य रस का सागर ही भर दिया हो, कभी कृष्ण के जन्म का, ल सरकने का, कभी गाय चराने का तो कभी चंद्रमा के लिए बाल हठ करने का ऐसा सजीव वर्णन किया है मानो सब उन्होंने अपने आँखों से देखा हो।
मैया कबहुं बढेगी चोटी?
किती बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहु है छोटी।
श्रृंगार वर्णन- महा कवी ने अपने काव्य में श्रृंगार रस का भी खूब रसा स्वादन किया है, उन्होंने अपनी रचना जमे विशद व व्यापक वर्णन किया है।
उन्होंने श्रृंगार कृष्ण की लीलाओं का सजीव वर्णन करते हुए राधा-कृष्ण तथा गोपियों के साथ उनकी उपस्थिति का चित्रण किया है। अधिकांशतः उन्होंने संयोग श्रृंगार का मर्यादित वर्णन किया है परंतु यदा कदा उसमें अश्लीलता का समावेश हो गया है।
प्रकृति वर्णन- सूरदास जी ने अपने काव्य रचना में प्रकृति का सुंदर और सजीव वर्णन किया है, उनके उनके आराध्या श्री कृष्णा का क्रीड़ा स्थल ही प्राकृतिक दृश्यों और जंगलों से संपन्न ब्रजभूमि थी, अतः ऐसी दशा में सूरदास द्वारा प्रकृति चित्रण बहुत ही सजीव ढंग से किया गया जिससे काव्य का भाव और परिलक्षित होता है।
सामाजिक पक्ष- सूरदास जी ने समाज के विविध रूप की झांकी जैसे सामाजिक रीतियों, सांस्कृतिक परंपराओं, पर्वों प्रस्तुत करते हुए अधिकांश कृष्ण लीला का वर्णन किया, हालांकि लोक-मंगल की कामना या समाज का उससे कोई सीधा संबंध तो नहीं है परंतु परोक्ष रूप से उन्होंने समाज की अनेक झांकियां प्रस्तुत की है। उ
गीति काव्य- सूरदास जी ने अपने प्रमुख ग्रंथ सूरसागर अलग-अलग अध्यायों में बाँटा तो है, परंतु उसमें महाकाव्य का लक्षण नहीं है।
सूरदास जी के पद आज भी संगीतज्ञ के लिए कण्ठहार बने हुए हैं क्योंकि उन्होंने अपने सभी पदों में गीतिकाव्य के तत्वों यथा संक्षिप्तता, भावों की तिव्रानुभूति और संगीतात्मक आदि का सम्मिलित किया है।
हास्य पक्ष- सूर का भ्रमरगीत वियोग-शृंगार का ही उत्कृष्ट ग्रंथ नहीं है, उसमें सगुण और निर्गुण मार्ग का भी वर्णन हुआ है। इसमें विशेषकर उद्धव-गोपी संवादों में हास्य-व्यंग्य का भी रसास्वादन कर सकते हैं |
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सूर के बारे में लिखा है-
सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकार-शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ा करता है। उपमाओं की बाढ़ आ जाती है, रूपकों की वर्षा होने लगती है।
सूरदास की भाषा शैली
भाषा शैली- सूरदास जी की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है, जिसमें उन्होंने संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ देशज और तद्भव शब्दों का आंशिक रूप से प्रयोग किया है।
सूरदास जी की भाषा प्रसाद एवं माधुर्य गुणों से युक्त है। आपके द्वार प्रयोग की गई भाषा में शब्द एवं अर्थ दोनों प्रकार के अलंकारों का प्रयोग हुआ है।
इनकी रचनओं में अनुप्रास, रूपक अलंकार का वृहद् प्रयोग प्रचुर मात्रा किया है। सूर ने वार्तालाप शैली का बहुत चतुराई से प्रयोग किया है, इन्होने छोटे से पद में भी इस शैली का प्रयोग किया है।
सूरदास ने अपनी भाषा में तर्क शैली के लिए लोकोक्तियों और सुक्तियों का पर्याप्त मात्रा में उल्लेख किया हैं।
इनके साहित्य में वात्सल्य, भक्ति, शांत, और श्रृंगार रसों का खुलकर प्रयोग हुआ है।
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द्विवेदी – युग के श्रेष्ठ निबंधकार सरदार पूर्णसिंह का जन्म सीमा प्रान्त ( जो अब पाकिस्तान में है ) के एबटाबाद जिले के एक गाँव में 17 फरवरी सन् 1881 ई० में हुआ था। इनकी माता के सात्विक और धर्मपरायण जीवन ने बालक पूर्ण सिंह को अति प्रभावित किया और इनके व्यक्तित्व पर विशेष प्रभाव डाला।
आरंभिक शिक्षा रावलपिंडी में हुई थी। हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद ये लाहौर चले गये । लाहौर एक कालेज से इन्होंने एफ0 ए0 की परीक्षा उत्तीर्ण की । इसके बाद एक विशेष छात्रवृत्ति प्राप्त कर सन् 1900 ई0 में रसायनशास्त्र के विशेष अध्ययन के लिए ये जापान गये और वहाँ इम्पीरियलं यूनिवर्सिटी में अध्ययन करने लगे ।
जब जापान में होनेवाली ‘ विश्व धर्म सभा ‘ में भाग लेने के लिए स्वामी रामतीर्थ वहाँ पहुँचे तो उन्होंने वहाँ अध्ययन कर रहे भारतीय विद्यार्थियों से भी भेंट की । इसी क्रम में सरदार पूर्णसिंह से स्वामी रामतीर्थ की भेंट हुई । स्वामी रामतीर्थ से प्रभावित होकर इन्होंने वहीं संन्यास ले लिया और स्वामी जी के साथ ही भारत लौट आये ।
स्वामी जी की मृत्यु के बाद इनके विचारों में परिवर्तन हुआ और इन्होंने विवाह करके गृहस्थ जीवन व्यतीत करना आरम्भ किया । इनको देहरादून के इम्पीरियल फारेस्ट इंस्टीट्यूट में 700 रुपये महीने की एक अच्छी अध्यापक की नौकरी मिल गयी । यहीं से इनके नाम के साथ अध्यापक शब्द जुड़ गया ।
ये स्वतंत्र प्रवृत्ति के व्यक्ति थे , इसलिए इस नौकरी को निभा नहीं सके और त्यागपत्र दे दिया । इसके बाद ये ग्वालियर गये । वहाँ इन्होंने सिखों के दस गुरुओं और स्वामी रामतीर्थ की जीवनियाँ अंग्रेजी में लिखीं । ग्वालियर में इनका मन नहीं लगा । तब ये पंजाब के जड़ाँवाला स्थान में जाकर खेती करने लगे । खेती में हानि हुई और ये अर्थ – संकट में पड़कर नौकरी की तलाश में इधर – उधर भटकने लगे ।
इनका सम्बन्ध क्रान्तिकारियों से भी था । ‘ देहली षड्यंत्र ‘ के मुकदमे में मास्टर अमीरचंद के साथ इनको भी पूछताछ के लिए बुलाया गया था किन्तु इन्होंने मास्टर अमीरचंद से अपना किसी प्रकार का सम्बन्ध होना स्वीकार नहीं किया । प्रमाण के अभाव में इनको छोड़ दिया गया । वस्तुतः मास्टर अमीरचंद स्वामी रामतीर्थ के परम भक्त और गुरुभाई थे । प्राणों की रक्षा के लिए इन्होंने न्यायालय में झूठा बयान दिया था । इस घटना का इनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा था । भीतर – ही – भीतर ये पश्चाताप की अग्नि में जलते रहते थे । इस कारण भी ये व्यवस्थित जीवन व्यतीत नहीं कर सके और हिन्दी साहित्य की एक बड़ी प्रतिभा पूरी शक्ति से हिन्दी की सेवा नहीं कर सकी और 31 मार्च , 1931 में इनकी 50 वर्ष की की आयु में मृत्यु हो गयी।
सरदार पूर्णसिंह की भाषा शुद्ध खड़ीबोली है , किन्तु उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ – साथ फारसी और अंग्रेजी के शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं । इनके विचार भावकता की लपेट में लिपटे हुए होते हैं । विचारों और भावनाओं के क्षेत्र में ये किसी सम्प्रदाय से बँधकर नहीं चलते । इसी प्रकार शब्द – चयन में भी ये अपने स्वच्छन्द स्वभाव को प्रकट करते हैं ।
इनका एक ही धर्म है मानववाद और एक ही भाषा है हृदय की भाषा । सच्चे मानव की खोज और सच्चे हृदय की भाषा की तलाश ही इनके साहित्य का लक्ष्य है ।सरदार पूर्ण सिंह ने अपने निबंध में शुद्ध भाषा एवं साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग किया है। उनके लेखों में उर्दू-फारसी के शब्दों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है। उनकी भाषा विषय तथा भावों के अनुकूल हे उसमें लक्षण तथा व्यंजना शब्द-शक्तियों का चनम उत्कर्ष देखाा जा सकता है। सरदार पूर्ण सिंह की भाषा शुद्ध साहित्यिक एवं परिमार्जित है।
उद्धरण – बहुलता और प्रसंग – गर्भत्व इनकी निबंध – शैली की विशेषता है। इनकी निबंध – शैली अनेक दृष्टियों से निजी – शैली है । उनके विचार भावुकता से ओत-प्रोत हैं | भावात्मकता ,विचारात्मकता , वर्णनात्मकता , सूत्रात्मकता , व्यंग्यात्मकता इनकी शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं। कभी-कभी वे अपनी रचनओं में कहीं कवित्व की ओर मुड़ जाते हैं और कहीं उपदेशक के समान उदेश देते है। उनके निबन्धों में भावों की गतिशीलता मिलती है, उसी के अनुसार उनकी शैली भी परिवर्तित हो जाती है।
सरदार पूर्ण सिंह हिन्दी के एक समर्थ निबन्धकार है |
सरदार पूर्णसिंह रचनाएँ :
सरदार पूर्णसिंह ने अपने प्रारंभिक जीवन में ही उर्दू, पंजाबी, फारसी, संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। उनकी भाषा में सर्वत्र विशेष प्रकार का प्रवाह लक्षित होता है। उनकी सबसे अधिक रचनाएँ अंग्रेजी में हैं।
अंग्रेजी में उन्होंने जीवनी,
‘दि स्केचेज फ्राम सिख हिस्ट्री’ (The Sketches from Sikh History) 1908
‘दि लाइफ एंड टीचिंग्स् आव श्री गुरु तेगबहादुर’ 1908,
‘गुरु गोविंदसिंह’) 1913
‘वीणाप्लेयर्स’ (Vinaplayers) 1919
‘सिस्टर्स ऑव दि स्पिनिंग ह्वील’ (Sisters of the Spinning wheel) 1921
‘ऐट हिज फीट’ (At His Feet) 1922,
‘द स्टोरी ऑव स्वामी राम’ (The Story of Swami Rama) 1924
‘शॉर्ट स्टोरीज़’ (Short Stories) 1927
‘ऑन दि पाथ्स् ऑव लाइफ’ (On the Paths of Life ) 1927-30 प्रभृति रचनाएँ उल्लेखनीय हैं।
सरदार पूर्णसिंह के हिन्दी में कुल छह निबंध उपलब्ध हैं
सच्ची वीरता
आचरण की सभ्यता
मजदूरी और प्रेम
अमेरिका का मस्त योगी वॉल्ट हिटमैन
कन्यादान
पवित्रता ।
इन्हीं निबंधों के बल पर इन्होंने हिन्दी गद्य – साहित्य के क्षेत्र में अपना स्थायी स्थान बना लिया है । इन्होंने निबंध रचना के लिए मुख्य रूप से नैतिक विषयों को ही चुना ।
सरदार पूर्णसिंह के निबंध विचारात्मक होते हुए भावात्मक कोटि में आते हैं । उनमें भावावेग के साथ ही विचारों के सूत्र भी लक्षित होते हैं जिन्हें प्रयत्नपूर्वक जोड़ा जा सकता है । ये प्रायः मूल विषय से हटकर उससे सम्बन्धित अन्य विषयों की चर्चा करते हए दूर तक भटक जाते हैं और फिर स्वयं सफाई देते हुए मूल विषय पर लौट आते हैं ।
निबंध ‘ आचरण की सभ्यता ‘ में लेखक ने आचरण की श्रेष्ठता प्रतिपादित की है । लेखक की दृष्टि में लम्बी – चौड़ी बातें करना , बड़ी – बड़ी पुस्तकें लिखना और दूसरों को उपदेश देना तो आसान है , किन्तु ऊंचे आदर्शों को आचरण में उतारना अत्यन्त कठिन है । जिस प्रकार हिमालय की सुन्दर चोटियों की रचना में प्रकृति को लाखों वर्ष लगाने पड़े हैं , उसी प्रकार समाज में सभ्य आचरण को विकसित करने में मनुष्य को लाखों वर्षों की साधना करनी पड़ी है । जनसाधारण पर सबसे अधिक प्रभाव सभ्य आचरण का ही पड़ता है । इसलिए यदि हमें पूर्ण मनुष्य बनना है तो अपने आचरण को श्रेष्ठ और सुन्दर बनाना होगा । आचरण की सभ्यता न तो बड़े – बड़े ग्रन्थों से सीखी जा सकती है और न मन्दिरों ,मस्जिदों और गिरजाघरों से । उसका खुला खजाना तो हमें प्रकृति के विराट् प्रांगण में मिलता है । आचरण की सभ्यता का पैमाना है परिश्रम , प्रेम और सरल व्यवहार । इसलिए हमें प्रायः श्रमिकों और सामान्य दीखनेवाले लोगों में उच्चतम आचरण के दर्शन प्राप्त हो जाते हैं ।
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बाबू श्याम सूंदर दास का जीवन परिचय (Shyam Sundar Das Jeevan Parichay):
द्विवेदी युग के महान साहित्यकार बाबू श्यामसुन्दरदास का जन्म काशी के प्रसिद्ध खत्री परिवार में सन् 1875 ई० में हुआ था । इनका बाल्यकाल बड़े सुख और आनन्द से बीता । इनके पूर्वज लाहौर के निवासी थे और पिता लाला देवी दास खन्ना काशी में कपड़े का व्यापार करते थे। Shyam Sundar Das Jeevan Parichay
सर्वप्रथम इन्हें संस्कृत की शिक्षा दी गयी , तत्पश्चात परीक्षाएँ उत्तीर्ण करते हुए सन् 1897 ई० में बी0 ए0 पास किया । बाद में आर्थिक स्थिति दयनीय होने के कारण चन्द्रप्रभा प्रेस में 40 रु0 मासिक वेतन पर नौकरी की । इन्होंने 16 जुलाई , सन् 1893 ई0 को विद्यार्थी – काल में ही अपने दो सहयोगियों रामनारायण मिश्र और ठाकुर शिवकुमार सिंह की सहायता से ‘ नागरी प्रचारिणी सभा ‘ की स्थापन की । इसके बाद काशी के हिन्दू स्कूल में सन् 1899 ई० में कुछ दिनों तक अध्यापन कार्य किया । इसके बाद लखनऊ के कालीचरण हाइस्कूल में प्रधानाध्यापक हो गये । इस पद पर नौ वर्ष तक कार्य किया । अन्त में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष हो गये और अवकाश ग्रहण करने तक इसी पद पर बने रहे । निरन्तर कार्य करते रहने के कारण इनका स्वास्थ्य गिर गया और सन् 1945 ई० में इनकी मृत्यु हो गयी।
श्यामसुन्दरदास जी अपने जीवन के पचास वर्षों में अनवरत रूप से हिन्दी की सेवा करते हुए उसे कोश , इतिहास, काव्यशास्त्र , भाषा – विज्ञान , शोधकार्य , उपयोगी साहित्य , पाठ्य – पुस्तक और सम्पादित ग्रन्थ आदि से समृद्ध किया उसके महत्त्व की प्रतिष्ठा की , उसकी आवाज को जन – जन तक पहुँचाया , उसे खण्डहरों से उठाकर विश्वविद्यालयों के भव्य भवनों में प्रतिष्ठित किया । वह अन्य भाषाओं के समकक्ष बैठने की अधिकारिणी हुई ।
हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने इन्हें ‘ साहित्य वाचस्पति ‘ और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने ‘ डी0 लिट्० ‘ की उपाधि देकर इनकी साहित्यिक सेवाओं की महत्ता को स्वीकार किया ।
बाबू श्यामसुन्दरदास की भाषा सिद्धान्त निरूपण करनेवाली सीधी , ठोस , भावकता – विहीन और निरलंकृत होती है । विषय – प्रतिपादन की दृष्टि से ये संस्कृत शब्दों का प्रयोग करते हैं और जहाँ तक बन पड़ा है , विदेशी शब्दों के प्रयोग बचते हैं । कहीं – कहीं पर इनकी भाषा दुरूह और अस्पष्ट भी हो जाती है । उसमें लोकोक्तियों का प्रयोग भी बहुत ही कम है । वास्तव में इनकी भाषा का महत्त्व उपयोगिता की दृष्टि से है और उसमें एक विशिष्ट प्रकार की साहित्यिक गुरुता ।
इनकी प्रारम्भिक कृतियों में भाषा – शैथिल्य दिखायी देता है किन्तु धीरे – धीरे वह प्रौढ़ , स्वच्छ , परिमार्जित संयत होती गयी है । बाबू साहब ने अत्यन्त गंभीर विषयों को बोधगम्य शैली में प्रस्तुत किया है । संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ तद्भव शब्दों का भी यथेष्ट प्रयोग करके इन्होंने शैली को दुरूह बनने से बचाया है । इनकी शैली में सुबोधता , सरलता और विषय – प्रतिपादन की निपुणता है , इनके वाक्य – विन्यास जटिल और दुर्बोध नहीं हैं । इनकी भाषा में उर्दू – फारसी के शब्दों तथा मुहावरों का प्रायः अभाव है । व्यंग्य , वक्रोक्ति तथा हास – परिहास से इनके निबंध प्रायः शून्य हैं ।
शैली :
विषय प्रतिपादन अनुरूप इनकी शैली में वैज्ञानिक पदावली का समीचीन प्रयोग हुआ है । हिन्दी भाषा को सर्वजन सुलभ , वैज्ञानिक और समृद्ध बनाने में इनका योगदान अप्रतिम है । इन्होंने विचारात्मक , गवेषणात्मक तथा व्याख्यात्मक शैलियों का व्यवहार किया है । आलोचना , भाषा – विज्ञान , भाषा का इतिहास , लिपि का विकास आदि विषयों पर इन्होंने वैज्ञानिक एवं सैद्धांतिक विवेचन प्रस्तुत कर हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाया है ।
। बाबू श्यामसुन्दर दास ने मुख्यतः दो प्रकार की शैलियों में लिखा है-
1 . विचारात्मक शैली– विचारात्मक शैली में विचारात्मक निबंध लिखे गए हैं। इस शैली के वाक्य छोटे-छोटे तथा भावपूर्ण हैं। भाषा सबल, सरल और प्रवाहमयी है। उदाहरणार्थ-
गोपियो का स्नेह बढ़या है। ये कृष्ण के साथ रास लीला में संकलित होती हैं। अनेक उत्सव मनाती है। प्रेममयी गोपिकाओं का यह आचरण बड़ा ही रमणीय है। उसमें कहीं से अस्वाभाविकता नहीं आ सकी।
2 . गवेषणात्मक शैली– गवेषणात्मक निबंधों में गवेषणात्मक शैली का प्रयोग किया गया है। इनमें वाक्य अपेक्षाकृत कुछ लंबे हैं। भाषा के तत्सम शब्दों की अधिकता है। विषय की गहनता तथा शुष्कता के कारण यह शैली में कुछ शुष्क और रहित है। इस प्रकार की शैली का एक उदाहरण देखिए-
यह जीवन-संग्राम दो भिन्न सभ्यताओं के संघर्षण से और भी तीव्र और दुखमय प्रतीत होने लगा है। इस अवस्था के अनुकूल ही जब साहित्य उत्पन्न होकर समाज के मस्तिष्क को प्रोत्साहित और प्रति क्रियमाण करेगा तभी वास्तविक उन्नति के लक्षण देख पड़ेंगे और उसका कल्याणकारी फल देश को आधुनिक काल का गौरव प्रदान करेगा।
बाबू श्याम सुंदर दास ने अनेक ग्रंथों की रचना की। उन्होंने लगभग सौ ग्रंथों का संपादन किया। उन्हें अप्रकाशित पुस्तकों की खोज करके प्रकाशित कराने का शौक था।
पाठ्यपुस्तकों के रूप में इन्होंने कई दर्जन सुसंपादित संग्रह ग्रंथ प्रकाशित कराए। इनकी प्रमुख पुस्तकें हैं –
हिंदी कोविद रत्नमाला भाग 1, 2 (1909-1914)
साहित्यालोचन (1922), भाषाविज्ञान (1923)
हिंदी भाषा और साहित्य (1930)
रूपकहस्य (1931)
भाषारहस्य भाग 1 (1935)
हिंदी के निर्माता भाग 1 और 2 (1940-41)
मेरी आत्मकहानी (1941)
कबीर ग्रंथावली (1928)
साहित्यिक लेख (1945)
श्याम सुंदर दास ने अपना पूरा जीवन हिंदी-सेवा को सुदृढ करने में समर्पित कर दिया। उनके इस योगदान से अनेक पुस्तकें साहित्य को प्राप्त हुईं : जैसे
नागरी वर्णमाला (1896)
हिंदी कोविद रत्नमाला (भाग 1 और 2) (1900)
हिंदी हस्तलिखित ग्रंथों का वार्षिक खोज विवरण (1900-05)
हिंदी हस्तलिखित ग्रंथों की खोज (1906-08)
साहित्य लोचन (1922), भाषा-विज्ञान (1929)
हिंदी भाषा का विकास (1924)
हस्तलिखित हिंदी ग्रंथों का संक्षिप्त विवरण (1933)
गद्य कुसुमावली (1925)
भारतेंदु हरिश्चंद्र (1927)
हिंदी भाषा और साहित्य (1930)
गोस्वामी तुलसीदास (1931)
रूपक रहस्य (1913)
भाषा रहस्य (भाग-1, 1935)
हिंदी गद्य के निर्माता (भाग 1 और 2) (1940)
आत्मकथा मेरी आत्म कहानी (1941)
श्याम सुंदर दास के पास सम्पादन के क्षेत्र में तो अद्भुत, अदुतीय प्रतिभा का परिचय दिया :
नासिकेतोपाख्यान अर्थावली (1901)
छत्रप्रकाश (1903)
रामचरितमानस (1904)
पृथ्वीराज रासो (1904)
हिंदी वैज्ञानिक कोष (1906)
वनिता विनोद (1906)
इंद्रावती (भाग-1, 1906)
हम्मीर रासो (1908)
शकुंतला नाटक (1908)
प्रथम हिंदी साहित्य सम्मेलन की लेखावली (1911)
बाल विनोद (1913)
हिंदी शब्द सागर (खण्ड- 1 से 4 तक, 1916)
मेघदूत (1920)
दीनदयाल गिरि ग्रंथावली (1921)
परमाल रासो (1921)
अशोक की धर्मलिपियाँ (1923)
रानीखेत की कहानी (1925)
भारतेंदु नाटकावली (1924)
कबीर ग्रंथावली (1928)
राधाकृष्ण ग्रंथावली (1930)
द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ (1933)
रत्नाकर (1933)
सतसई सप्तक (1933)
बाल शब्द सागर (1935)
त्रिधारा (1935)
नागरी प्रचारिणी पत्रिका (1 से 18 तक)
मनोरंजन पुस्तक माला (1 से 50 तक)
सरस्वती (1900 तक)
बाबू श्याम सुंदर दास ने इतना काम हिंदी साहित्य के लिए किया है कि वे एक व्यक्ति से ज़्यादा संस्था बन गये। उन्होंने
मानस सूक्तावली (1920)
संक्षिप्त रामायण (1920)
हिन्दी निबंधमाला (भाग-1/2, 1922)
संक्षिप्त पद्मावली (1927)
हिंदी निबंध रत्नावली (1941) का सम्पादन भी किया
विद्यार्थियों के लिए उन्होंने उच्चस्तरीय पाठ्य पुस्तकें तैयार कीं। इस तरह की पाठ्य पुस्तकों में
भाषा सार संग्रह (1902)
भाषा पत्रबोध (1902)
प्राचीन लेखमाला (1903)
हिंदी पत्र-लेखन (1904)
आलोक चित्रण (1902)
हिंदी प्राइमर (1905)
हिंदी की पहली पुस्तक (1905)
हिंदी ग्रामर (1906)
हिंदी संग्रह (1908)
गवर्नमेण्ट ऑफ़ इण्डिया (1908)
बालक विनोद (1908)
नूतन-संग्रह (1919)
अनुलेख माला (1919)
हिंदी रीडर (भाग-6/7, 1923)
हिंदी संग्रह (भाग-1/2, 1925)
हिंदी कुसुम संग्रह (भाग-1/2, 1925)
हिंदी कुसुमावली (1927)
हिंदी-सुमन (भाग-1 से 4, 1927)
हिंदी प्रोज़ सिलेक्शन (1927)
गद्य रत्नावली (1931)
साहित्य प्रदीप (1932)
हिंदी गद्य कुसुमावली (1936)
हिंदी प्रवेशिका पद्यावली (1939)
हिंदी गद्य संग्रह (1945)
साहित्यिक लेख (1945)
व्यावहारिक आलोचना
श्यामसुन्दर दास व्यावहारिक आलोचना के क्षेत्र में भी सामंजस्य को लेकर चले हैं। इसीलिए इनकी आलोचना पद्धति में ऐतिहासिक व्याख्या, विवेचना, तुलना, निष्कर्ष, निर्णय आदि अनेक तत्व सम्लित हैं।
अपने जीवन के पचास वर्षों में अनवरत रूप से हिन्दी की सेवा करते हुए इन्होंने इसे काव्यशास्त्र, भाषा विज्ञान, शोधकार्य, कोश, इतिहास, पाठ्य पुस्तक उपयोगी साहित्य, और सम्पादित ग्रन्थ आदि से समृद्ध किया, उसके महत्त्व की प्रतिष्ठा की, उसकी आवाज़ को जन-जन तक पहुँचाया।
निधन
जीवन के अंतिम वर्षों में श्यामसुंदर दास बीमार पड़े तो फिर उठ न सके। सन 1945 ई. में उनका स्वर्गवास हो गया। आशा है कि आपको Shyam Sundar Das Jeevan Parichay पर लिखा गया पोस्ट पसंद आया होगा |
Kabir Das Jeevan Parichay | Biography of Kabir Das
संत कबीरदास जीवन परिचय : (Kabir Das Jeevan Parichay)
भक्तिकालीन धारा की निर्गुणाश्रयी शाखा के अन्तर्गत ज्ञानमार्ग का प्रतिपादन करने वाले महान् सन्त कबीरदास की जन्मतिथि के सम्बन्ध में कोई निश्चित मत पर प्रकट नहीं किया जा सकता । प्रामाणिक साक्ष्य उपलब्ध न होने के कारण इनके जन्म के सम्बन्ध में अनेक जनश्रुतियाँ एवं किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं । ‘ कबीर पन्थ ‘ में कबीर का आविर्भावकाल सं0 1455 वि0 ( 1398 ई0 ) में ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष पूर्णिमा को सोमवार के दिन माना जाता है ।
भक्त परम्परा ‘ में प्रसिद्ध है कि किसी विधवा ब्राह्मणी को स्वामी रामानन्द के आशीर्वाद से पुत्र उत्पन्न होने पर उसने समाज के भय से काशी के समीप लहरतारा ( लहर तालाब ) के किनारे फेंक दिया था , जहाँ से नीमा और नीरू । ( नूरा ) नामक जुलाहा दम्पति ने उसे ले जाकर पाला और उसका नाम कबीर रखा ।
कबीर के जन्म – स्थान के सम्बन्ध में तीन प्रकार के मत प्रचलित हैं – काशी , मगहर और आजमगढ़ जिले में बेलहरा गाँव । सर्वाधिक स्वीकार मत काशी का ही है, जिसकी पुष्टि स्वयं कबीर का यह कथन भी करता है।
“काशी में परगट भये ,रामानंद चेताये “
‘ भक्त परम्परा ‘ एवं ‘ कबीर पन्थ ‘ के अनुसार स्वामी रामानन्दजी इनके गुरु थे । जीविकोपार्जन के लिए कबीर जुलाहे का काम करते थे।
कबीर अपने युग के सबसे महान् समाज – सुधारक , प्रतिभा सम्पन्न एवं प्रभावशाली व्यक्ति थे । ये अनेक प्रकार के विरोधी संस्कारों में पले थे और किसी भी बाह्य आडम्बर , कर्मकाण्ड और पूजा – पाठ की अपेक्षा पवित्र , नैतिक और सादे जीवन को अधिक महत्त्व देते थे । सत्य , अहिंसा , दया तथा संयम से युक्त धर्म के सामान्य स्वरूप में ही ये विश्वास करते थे ।
जो भी सम्प्रदाय इन मूल्यों के विरुद्ध कहता था , उसका ये निर्ममता से खण्डन करते थे । इसी से इन्होंने अपनी रचनाओं में हिन्दू और मुसलमान दोनों के रूढ़िगत विश्वासों एवं धार्मिक कुरीतियों का विरोध किया है ।
कबीर की मृत्यु के सम्बन्ध में भी अनेक मत हैं । ‘ कबीर पन्थ में कबीर का मृत्युकाल सं0 1575 वि0 माघ शुक्ल पक्ष एकादशी , बुधवार ( 1518 ई0 ) को माना गया है , जो कि तर्कसंगत प्रतीत होता है ।
‘ कबीर परचई ‘ के अनुसार बीस वर्ष में कबीर चेतन हुए और सौ वर्ष तक भक्ति करने के बाद मुक्ति पायी अर्थात् इन्होंने 120 वर्ष की आयु पायी थी।
बालपनौ धोखा मैं गयो , बीस बरिस तैं चेतन भयो । बरिस सऊ लगि कीन्हीं भगती , ता पीछै सो पायी मुकती । । ।
संत कबीरदास की भाषा
Kabir Das Jeevan Parichay में कबीर की भाषा सधुक्कड़ी एवं पंचमेल खिचड़ी हैं। इनकी भाषा में हिंदी भाषा की सभी बोलियों के मिले-जुले शब्द सम्मिलित हैं। राजस्थानी, हरियाणवी, पंजाबी, खड़ी बोली, अवधी, ब्रजभाषा के शब्दों की बहुलता है।
कबीर के काव्य में भावात्मक रहस्यवाद की अभिव्यक्ति भी भली प्रकार हुई है । भावात्मक रहस्यवाद माधुर्य भाव से प्रेरित है , इसके अन्तर्गत कविगण परमात्मा को पुरुष और आत्मा को नारी रूप में चित्रित करते हैं ।
कबीर को छन्दों का ज्ञान नहीं था , पर छन्दों की स्वच्छन्दता ही कबीर – काव्य की सुन्दरता बन गयी है । अलंकारों का चमत्कार दिखाने की प्रवृत्ति कबीर में नहीं है , पर इनका स्वाभाविक प्रयोग हृदय को मुग्ध कर लेता है ।
इनकी कविता में अत्यन्त सरल और स्वाभाविक भाव एवं विचार – सौन्दर्य के दर्शन होते हैं । कबीर की भाषा में पंजाबी , राजस्थानी , अवधी आदि अनेक प्रान्तीय भाषाओं के शब्दों की खिचड़ी मिलती है । सहज भावाभिव्यक्ति के लिए ऐसी ही लोकभाषा की आवश्यकता भी थी , इसीलिए इन्होंने साहित्य की अलंकृत भाषा को छोड़कर लोकभाषा को अपनाया ।
इनकी साखियों की भाषा अत्यन्त सरल और प्रसाद – गुण – सम्पत्र है । कहीं – कहीं सूक्तियों का चमत्कार भी दृष्टिगोचर होता है । हठयोग और रहस्यवाद की विचित्र अनुभूतियों का वर्णन करते समय कबीर की भाषा में लाक्षणिकता आ गयी है । ऐसे स्थलों पर संकेतों और प्रतीकों के माध्यम से बात कही गयी है ।
कबीर ने कभी अपनी रचनाओं को एक कवि की भाँति लिखने – लिखाने का प्रयत्न नहीं किया था । गानेवाले के मुख में पड़कर उनका रूप भी एक – सा नहीं रह गया ।
कबीर ने स्वयं कहा है – ” मसि कागद छुऔ नहीं , कलम गह्यो नहिं हाथ । “
इससे स्पष्ट है कि इन्होंने भक्ति के आवेश में जिन पदों एवं साखियों को गाया , उन्हें इनके शिष्यों ने संग्रहीत कर लिया । उसी संग्रह का नाम ‘ बीजक ‘ है । यह संग्रह तीन भागों में विभाजित है – साखी , सबद और रमैनी ।
साखी : संस्कृत ‘ साक्षी , शब्द का विकृत रूप है, अधिकांश साखियाँ दोहों में लिखी गयी हैं , पर उनमें सोरठे का प्रयोग भी मिलता है ।
सबद : ‘सबद ‘ गेय पद हैं और इनमें संगीतात्मकता का भाव विद्यमान है ।
रमैनी : चौपाई एवं दोहा छन्द में रचित ‘ रमैनी में कबीर के रहस्यवादी और दार्शनिक विचारों को प्रकट किया गया ।
कुछ अद्भुत अनुभूतियों को कबीर ने विरोधाभास के माध्यम से उलटवासियों की चमत्कारपूर्ण शैली में व्यक्त किया है जिससे कहीं – कहीं दुर्बोधता आ गयी है । सन्त कबीर एक उच्चकोटि के सन्त तो थे ही , हिन्दी साहित्य में एक श्रेष्ठ एवं प्रतिभावान कवि के रूप में भी प्रतिष्ठित हैं । ये केवल राम जपने वाले जड़ साधक नहीं थे , सत्संगति से इन्हें जो बीज मिला उसे इन्होंने अपने पुरुषार्थ से वृक्ष का रूप दिया ।
डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा था – ” हिन्दी साहित्य के हजार वर्षों में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ । महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वन्द्वी जानता है – तुलसीदास । “
कभी-कभी वह राम को वात्सल्य मूर्ति के रूप में माँ मान लेते हैं और खुद को उनका पुत्र। निर्गुण-निराकार ब्रह्म के साथ भी इस तरह का सरस, सहज, मानवीय प्रेम कबीर की भक्ति की विलक्षणता है। कबीर भी राम की बहुरिया बन जाते हैं । यह दुविधा और समस्या दूसरों को भले हो सकती है कि जिस राम के साथ कबीर इतने अनन्य, मानवीय संबंधपरक प्रेम करते हों, वह भला निर्गुण कैसे हो सकते हैं, पर खुद कबीर के लिए यह समस्या नहीं है।
वह कहते भी हैं
“संतौ, धोखा कासूं कहिये। गुनमैं निरगुन, निरगुनमैं गुन, बाट छांड़ि क्यूं बहिसे!” नहीं है।
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रामवृक्ष बेनीपुरी (23 दिसंबर, 1902 – 7 सितंबर, 1968 ) हिन्दुस्तान के एक महान विचारक, चिन्तक, मननकर्ता क्रान्तिकारी पत्रकार, साहित्यकार और संपादक थे। वे हिन्दी साहित्य के शुक्लोत्तर युग के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। इस पोस्ट में हम Jeevan Parichay of Rambriksh Benipuri in Hindi के बारे में जानेंगे | इस पोस्ट में आपको rambriksh benipuri ka janm kab hua tha का जबाब भी मिलेगा |
रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म सन् 1902 ई० में बिहार स्थित मुजफ्फरपुर जिले के बेनीपुर गाँव में हुआ था । इनके पिता श्री फलवन्त सिंह एक साधारण किसान थे बचपन में ही इनके माता – पिता का देहावसान हो गया और इनका लालन – पालन इनकी मौसी की देखरेख में हुआ ।
इनकी प्रारम्भिक शिक्षा बेनीपुर में ही हुई । बाद में इनकी शिक्षा इनके ननिहाल में भी हुई । मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के पूर्व ही सन् 1920 इन्होंने अध्ययन छोड़ दिया और महात्मा गाँधी के नेतृत्व में प्रारम्भ हुए असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े ।\
बाद में हिन्दी साहित्य सम्मेलन से ‘ विशारद ‘ की परीक्षा उत्तीर्ण की। ये राष्ट्रसेवा के साथ – साथ साहित्य की भी साधना करते रहे । साहित्य की ओर इनकी रुचि । ‘ रामचरितमानस ‘ के अध्ययन से जागृत हुई । पन्द्रह वर्ष की आयु से ही ये पत्र – पत्रिकाओं में लिखने लगे थे । देश – सेवा के परिणामस्वरूप इनको अनेक वर्षों तक जेल की यातनाएँ भी सहनी पड़ी । सन् 1968 में इनका निधन हो गया ।
रामवृक्ष बेनीपुरी भाषा शैली :
बेनीपुरी जी की भाशा-शैली नितान्त मौलिक है। इनकी भाषा व्यावहारिक है और बेनीपुरी का गद्य हिन्दी की प्रकृति के सर्वथा अनुकूल है , बातचीत के करीब है शब्द-चयन चमत्कारिक है। बेनीपुरी जी के गद्य – साहित्य में गहन अनुभूतियों एवं उच्च कल्पनाओं की स्पष्ट झाँकी मिलती है । भाषा में ओज है ।
इनकी खड़ीबोली में कुछ आंचलिक शब्द भी आ जाते हैं , किन्तु इन प्रांतीय शब्दों से भाषा के प्रवाह में कोई विघ्न नहीं उपस्थित होता । भाषा के तो ये ‘ जादूगर ‘ माने जाते हैं । इनकी भाषा में संस्कृत , अंग्रेजी और उर्दू के प्रचलित शब्दों का प्रयोग हुआ है । भाषा को सजीव , सरल और प्रवाहमयी बनाने के लिए मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग भी किया है ।
इनकी रचनाओं में विषय के अनुरूप विविध शैलियों के दर्शन होते हैं । शैली में विविधता है । कहीं चित्रोपम शैली , कहीं डायरी शैली , कहीं नाटकीय शैली । किन्तु सर्वत्र भाषा में प्रवाह एवं ओज विद्यमान है । वाक्य छोटे होते हैं किन्तु भाव पाठकों को विभोर कर देते हैं ।
बेनीपुरी जी बहुमुखी प्रतिभावाले लेखक हैं । इन्होंने गद्य की विभिन्न विधाओं को अपनाकर विपुल मात्रा में साहित्य की सृष्टि की। पत्रकारिता से ही इनकी साहित्य – साधना का प्रारम्भ हुआ । साहित्य – साधना और देशभक्ति दोनों ही इनके प्रिय विषय रहे हैं । इनकी रचनाओं में कहानी , उपन्यास , नाटक , रेखाचित्र , संस्मरण , जीवनी , यात्रावृत्तान्त , ललित लेख आदि के अच्छे उदाहरण मिल जाते हैं।
मुहावरे एवं कहावतों का प्रयोग भी इन्होंने किया है। ये एक राजनीतिक एवं समाजसेवी व्यक्ति थे। विधानसभा , सम्मेलन , किसान सभा , राष्ट्रीय आन्दोलन , विदेश – यात्रा , भाषा – आन्दोलन आदि के बीच में रमे रहते हुए भी इनका साहित्यकार व्यक्तित्व हिन्दी साहित्य को अनेक सुन्दर ग्रंथ दे गया है । छोटे-छोटे वाक्य गहरी अर्थाभिव्यक्ति के कारण बहुत तीखी चोट करते हैं।
इनकी अधिकांश रचनाएँ जेल में लिखी गयी हैं किन्तु इनका राजनीतिक व्यक्तित्व इनके साहित्यकार व्यक्तित्व को दबा नहीं सका । इनकी शैली की विशिष्टताएं कई हैं जो इनके हर लेखन में मिलती हैं ।
शैली :
आलोचनात्मक
वर्णनात्मक
भावात्मक
प्रतीकात्मक
आलंकारिक
वर्यग्यात्मक
चित्रात्मक शैलियों दर्शन होते हैं।
भाषा :
सरल
बोधगम्य
प्रवाहयुक्त खड़ीबोली।
रामवृक्ष बेनीपुरी की रचनाएँ :
बेनीपुरी जी ने उपन्यास , नाटक , कहानी , संस्मरण , निबंध , रेखाचित्र आदि सभी गद्य – विधाओं पर अपनी कलम उठायी ।
Rambriksh Benipuri in Hindi Books
रामवृक्ष बेनीपुरी नाटक
अम्बपाली -1941-46
सीता की माँ -1948-50
संघमित्रा -1948-50
अमर ज्योति -1951
तथागत
सिंहल विजय
शकुन्तला
रामराज्य
नेत्रदान -1948-50
गाँव के देवता
नया समाज
विजेता -1953.
बैजू मामा, नेशनल बुक ट्र्स्ट
शमशान में अकेली अन्धी लड़की के हाथ में अगरबत्ती
संस्मरण तथा निबन्ध
पतितों के देश में -1930-33
चिता के फूल -1930-32
लाल तारा -1937-39
कैदी की पत्नी -1940
माटी की मूरत -1941-45 (रेखाचित्र)
गेहूँ और गुलाब – 1948–50
जंजीरें और दीवारें
उड़ते चलो, उड़ते चलो
मील के पत्थर
सम्पादन एवं आलोचन
बालक
तरुण भारती
युवक
किसान – मित्र
कैदी
योगी
जनता
हिमालय
नयी धारा
चुन्नू – मुन्नू ।
यात्रा – वर्णन
पैरों में पंख बाँधकर।
बेनीपुरी जी के सम्पूर्ण साहित्य को बेनीपुरी ग्रंथावली नाम से दस खण्डों में प्रकाशित कराने की योजना थी , जिसके कुछ खण्ड प्रकाशित हो सके । निबंधों और रेखाचित्रों के लिए इनकी ख्याति सर्वाधिक है ।
माटी की मूरत इनके श्रेष्ठ रेखाचित्रों का संग्रह है जिसमें बिहार के जन – जीवन को पहचानने के लिए अच्छी सामग्री है । कुल 12 रेखाचित्र । हैं और सभी एक – से – एक बढ़कर हैं ।