हिन्दी मे अलंकार : भेद, प्रकार, उदाहरण

हिन्दी मे अलंकार : भेद, प्रकार, उदाहरण

Hindi Mein Alankar

हिन्दी मे अलंकार : भेद, प्रकार, उदाहरण

किसी भी काव्य मे अलंकार आभूषण की तरह होता है | काव्य की शोभा बढ़ानेवाले तत्त्वों को ‘ अलंकार ‘ कहते हैं । हिन्दी काव्य सौंदर्य के तीन तत्व होते हैं, रस, छंद और अलंकार (ras chand alankar) और अलंकार हिन्दी भाषा की कविता का धर्म है |

काव्य को सुन्दरतम बनाने के लिए अनेक उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है । इन उपकरणों में एक अलंकार भी है |

जिस प्रकार मानव अपने शरीर को अलंकृत करने के लिए विभिन्न वस्त्राभूषणादि को धारण करके समाज में गौरवान्वित होता है , उसी प्रकार कवि भी कवितारूपी नारी को अलंकारों से अलंकृत करके गौरव प्राप्त करता है ।

आचार्य दण्डी ने कहा भी है –काव्यशोभाकान धर्मान अलङ्कारान् प्रचक्षते । “

अर्थात् काव्य के शोभाकार धर्म , अलंकार होते हैं । अलंकारों के बिना कवितारूपी नारी विधवा – सी लगती है ।

अलंकारों के महत्त्व का कारण यह भी है कि इनके आधार पर भावाभिव्यक्ति में सहायता मिलती है तथा काव्य रोचक और प्रभावशाली बनता है । इससे अर्थ में भी चमत्कार पैदा होता है तथा अर्थ को समझना सुगम हो जाता है ।

अलंकार के भेद (Alankar ke Bhed)

प्रधान रूप से अलंकार के दो भेद माने जाते हैं –

  1. शब्दालंकार
  2. अर्थालंकार

इन दोनों भेदों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है ।

 ( अ ) शब्दालंकार –

“ जब कुछ विशेष शब्दों के कारण काव्य में चमत्कार उत्पन्न होता है तो वह ‘ शब्दालंकार ‘ कहलाता है । “

यदि इन शब्दों के स्थान पर उनके ही अर्थ को व्यक्त करनेवाला कोई दूसरा शब्द रख दिया जाए तो वह चमत्कार समाप्त हो जाता है ।

उदाहरणार्थ –

कनक कनक ते सौ गुनी , मादकता अधिकाय ।

वा खाए बौराय जग , या पाए ही बौराय ॥ – बिहारी

यहाँ ‘ कनक ‘ शब्द के कारण जो चमत्कार है , वह पर्यायवाची शब्द रखते ही समाप्त हो जाएगा ।

( ब ) अर्थालंकार –

“ जहाँ काव्य में अर्थगत चमत्कार होता है , वहाँ ‘ अर्थालंकार ‘ माना जाता है । “

इस अलंकार पर आधारित शब्दों के स्थान पर उनका कोई पर्यायवाची रख देने से भी अर्थगत सौन्दर्य में कोई अन्तर नहीं पड़ता ।

उदाहरणार्थ –

चरण – कमल बन्दौं हरिराई ।

यहाँ पर ‘ कमल ‘ के स्थान पर ‘ जलज ‘ रखने पर भी अर्थगत सौन्दर्य में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा ।

( अ ) शब्दालंकार

( 1 ) अनुप्रास अलंकार

 

अनुप्रास अलंकार की परिभाषा – वर्णों की आवृत्ति को ‘ अनुप्रास ‘ कहते हैं :

अर्थात ” जहाँ समान वर्गों की बार – बार आवृत्ति होती है वहाँ ‘ अनुप्रास ‘ अलंकार होता है । ‘ ‘

अनुप्रास अलंकार का उदाहरण –

  • तरनि – तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए ।
  • रघुपति राघव राजा राम ।

 स्पष्टीकरण – उपर्युक्त उदाहरणों के अन्तर्गत प्रथम में ‘ त ‘ तथा द्वितीय में ‘ र ‘ वर्ण की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है । –

अनुप्रास अलंकार के भेद – अनुप्रास के पाँच प्रकार हैं –

  1.  छेकानुप्रास
  2.  वृत्यनुप्रास
  3.  श्रुत्यनुप्रास
  4. लाटानुप्रास
  5. अन्त्यानुप्रास ।

इन भेदों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है-

( 1 ) छेकानुप्रास – जब एक या अनेक वर्णों की आवृत्ति एक बार होती है , तब ‘ छेकानुप्रास अलंकार होता है।

 उदाहरण –

  • कहत कत परदेसी की बात ।
  • पीरी परी देह , छीनी राजत सनेह भीनी ।

स्पष्टीकरण – उपर्युक्त उदाहरणों में , प्रथम में ‘ क ‘ वर्ण की तथा द्वितीय में ‘ प ‘ वर्ण की आवृत्ति एक बार हुई है , अत : यहाँ ‘ छेकानुप्रास ‘ अलंकार है ।

 ( 2 ) वृत्यनुप्रास – जहाँ एक वर्ण की अनेक बार आवृत्ति हो , वहाँ ‘ वृत्यनुप्रास ‘ अलंकार होता है ।

उदाहरण –

  • तरनि – तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।
  • रघुपति राघव राजा राम।
  • कारी कूर कोकिल कहाँ का बैर काढ़ति री।

स्पष्टीकरण – उपर्युक्त उदाहरणों में , प्रथम में ‘ त ‘ वर्ण की , द्वितीय में ‘ र ‘ वर्ण की तथा तृतीय उदाहरण में ‘ क ‘ वर्ण की अनेक बार आवृत्ति हुई है ;

अतः यहाँ ‘ वृत्यनुप्रास ‘ अलंकार है ।

( 3 ) श्रुत्यनुप्रास – जब कण्ठ , तालु , दन्त आदि किसी एक ही स्थान से उच्चरित होनेवाले वर्गों की आवृत्ति होती है , तब वहाँ ‘ श्रुत्यनुप्रास ‘ अलंकार होता है ।

उदाहरण –

तुलसीदास सीदत निसिदिन देखत तुम्हारि निठुराई ।

स्पष्टीकरण – उपर्युक्त उदाहरण में दन्त्य वर्णों त , द , कण्ठ वर्ण र तथा तालु वर्ण न की आवृत्ति हुई है ।

अतः यहाँ ‘ श्रुत्यनुप्रास ‘ अलंकार है ।

( 4 ) लाटानुप्रास – जहाँ शब्द और अर्थ की आवृत्ति हो ; अर्थात् जहाँ एकार्थक शब्दों की आवत्ति तो हो परन्तु अन्वय करने पर अर्थ भिन्न हो जाए ; वहाँ ‘ लाटानुप्रास ‘ अलंकार होता है ।

उदाहरण –

पूत सूपत तो क्यों धन संचै ?

पूत कपूत तो क्यों धन संचै ?

स्पष्टीकरण- जहां एक से अधिक अर्थ वाले शब्दों की आवृत्ति हो रही है किंतु, अन्वय के कारण अर्थ बदल रहा है,

जैसे पुत्र यदि सपूत हो तो धन संचय की कोई आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि वह स्वयं ही कमा लेगा और यदि पुत्र कपूत है, तो भी धन संचय की आवश्यकता नहीं क्योंकि वह सारे धन को नष्ट कर देगा

( 5 ) अन्त्यानुप्रास – जब छन्द के शब्दों के अन्त में समान स्वर या व्यंजन की आवृत्ति हो , वहाँ ‘ अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है ।

उदाहरण :

कहत नटत रीझत खिझत , मिलत खिलत लजियात ।

भरे भौन में करतु हैं , नैननु ही सौं बात ॥

स्पष्टीकरण – उपर्युक्त उदाहरण में , छन्द के शब्दों के अन्त में ‘ त ‘ व्यंजन की आवृत्ति हुई है , अतः यहाँ ‘ अन्त्यानुप्रास ‘ अलंकार है । ‘

( 2 ) यमक अलंकार ( Yamk Alankar )

 

यमक अलंकार की परिभाषा – ‘ यमक ‘ का अर्थ है – ‘ युग्म ‘ या ‘ जोड़ा ‘ । इस प्रकार “ जहाँ एक शब्द अथवा शब्द – समूह का – एक से अधिक बार प्रयोग हो , किन्तु उसका अर्थ प्रत्येक बार भिन्न हो , वहाँ ‘ यमक ‘ अलंकार होता है । ”

उदाहरण –

ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहनवारी ,

ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहाती हैं ।

स्पष्टीकरण – उपर्युक्त उदाहरण में ‘ ऊँचे घोर मंदर ‘ के दो भिन्न – भिन्न अर्थ हैं – ‘ महल ‘ और ‘ पर्वत कन्दराएँ ‘

अत : यहाँ ‘ यमक ‘ अलंकार है ।

( 3 ) श्लेष अलंकार

 

श्लेष अलंकार की परिभाषा – जिस शब्द के एक से अधिक अर्थ होते हैं, उसे ‘ श्लिष्ट ‘ कहते हैं । इस प्रकार “ जहाँ किसी शब्द के एक बार प्रयुक्त होने पर एक से अधिक अर्थ होते हों, वहाँ ‘ श्लेष अलंकार’ होता है । ”

 उदाहरण:

रहिमन पानी राखिए , बिन पानी सब सून ।

पानी गए न ऊबरे , मोती मानुष चून ॥

स्पष्टीकरण – उपर्युक्त उदाहरण में तीसरी बार प्रयुक्त ‘ पानी ‘ शब्द श्लिष्ट है और यहाँ इसके तीन अर्थ हैं – चमक ( मोती के पक्ष में ) , प्रतिष्ठा ( मनुष्य के पक्ष में ) तथा जल ( आटे के पक्ष में ) ;

अत : यहाँ ‘ श्लेष ‘ अलंकार है । ‘ |

( ब ) अर्थालंकार |

( 4 ) उपमा  अलंकार

 

उपमा अलंकार की परिभाषा – ‘ उपमा ‘ का अर्थ है – सादृश्य , समानता तथा तुल्यता । “ जहाँ पर उपमेय की उपमान से किसी समान धर्म के आधार पर समानता या तुलना की जाए , वहाँ ‘ उपमा अलंकार होता है ।

उपमा अलंकार के अंग – उपमा अलंकार के चार अंग हैं-

  1. उपमेय – जिसकी उपमा दी जाए ।
  2. उपमान – जिससे उपमा दी जाए ।
  3. समान ( साधारण ) धर्म – उपमेय और उपमान दोनों से समानता रखनेवाले धर्म ।
  4. वाचक शब्द – उपमेय और उपमान की समानता प्रदर्शित करनेवाला सादृश्यवाचक शब्द ।

उदाहरण –

मुख मयंक सम मंजु मनोहर ।

स्पष्टीकरण – उपर्युक्त उदाहरण में ‘ मुख ‘ उपमेय , ‘ मयंक ‘ उपमान , ‘ मंजु और मनोहर ‘ साधारण धर्म तथा ‘ सम ‘ वाचक शब्द है ;

अत : यहाँ ‘ उपमा ‘ अलंकार का पूर्ण परिपाक हुआ है ।

उपमा अलंकार के भेद – उपमा अलंकार के प्रायः चार भेद किए जाते हैं —

  1. पूर्णोपमा
  2. लुप्तोपमा
  3. रसनोपमा
  4. मालोपमा ।

उपमा अलंकार के भेदों का संक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित है-

( क ) पूर्णोपमा – पूर्णोपमा अलंकार में उपमा के चारों अंग उपमान , उपमेय , साधारण धर्म और वाचक शब्द स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट होते हैं ।

उदाहरण –  पीपर पात सरिस मन डोला ।

स्पष्टीकरण – उपर्युक्त उदाहरण में उपमा के चारों अंग उपमान ( पीपर पात ) , उपमेय ( मन ) , साधारण धर्म ( डोला ) तथा वाचक शब्द ( सम ) स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट हैं ; अत : यहाँ ‘ पूर्णोपमा ‘ अलंकार है ।

( ख ) लुप्तोपमा – “ उपमेय , उपमान , साधारण धर्म तथा वाचक शब्द में से किसी एक या अनेक अंगों के लुप्त होने पर ‘ लुप्तोपमा ‘ अलंकार होता है । ” लुप्तोपमा अलंकार में उपमा के तीन अंगों तक के लोप की कल्पना की गई है ।

उदाहरण – नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन ।

स्पष्टीकरण – उपर्युक्त उदाहरण में ‘ नयन ‘ उपमेय , “ सरोरुह और बारिज ‘ उपमान तथा ‘ नील और अरुण ‘ साधारण धर्म हैं । ‘ समान ‘ आदिवाचक शब्द का लोप हुआ है ; अतः यहाँ ‘ लुप्तोपमा ‘ अलंकार है ।

( ग ) रसनोपमा – जिस प्रकार एक कडी दसरी कड़ी से क्रमश : जडी रहती है , उसी प्रकार “ रसनोपमा अलंकार में उपमेय – उपमान एक – दूसरे से जुड़े रहते हैं । ”

उदाहरण – सगुन ज्ञान सम उद्यम , उद्यम सम फल जान । . फल समान पुनि दान है , दान सरिस सनमान ॥

स्पष्टीकरण – उपर्युक्त उदाहरण में ‘ उद्यम ‘ , ‘ फल ‘ . ‘ दान ‘ और ‘ सनमान ‘ उपमेय अपने उपमानों के साथ श्रृंखलाबद्ध रूप में प्रस्तुत किए गए हैं ; अतः यहाँ ‘ रसनोपमा ‘ अलंकार है ।

( घ ) मालोपमा – मालोपमा का तात्पर्य है – माला के रूप में उपमानों की श्रृंखला । “ एक ही उपमेय के लिए जब अनेक उपमानों का गुम्फन किया जाता है , तब ‘ मालोपमा ‘ अलंकार होता है । ”

उदाहरण – पछतावे की परछाँही – सी , तुम उदास छाई हो कौन ? दुर्बलता की अंगड़ाई – सी , अपराधी – सी भय से मौन ।

स्पष्टीकरण – उपर्युक्त उदाहरण में एक उपमेय के लिए अनेक उपमान प्रस्तुत किए गए हैं ; अत : यहाँ ‘ मालोपमा ‘ अलंकार है । ‘

( 5 ) रूपक अलंकार 

 

परिभाषा – ” जहां उपमेय में उपमान का भेदरहित आरोप हो वहाँ रूपक अलंकार होता है । रूपक अलंकार में उपमेय और उपमान में कोई भेद नहीं रहता । ।

रूपक अलंकार का उदाहरण-

ओ चिंता की पहली रेखा ,

अरे विश्व – वन की व्याली ।

ज्वालामुखी स्फोट के भीषण ,

प्रथम कम्प – सी मतवाली ।

स्पष्टीकरण – उपयुक्त उदाहरण में चिन्ता उपमेय में विश्व – वन की व्याली आदि उपमानो का आरोप किया गया है, अत : यहाँ ‘ रूपक ‘ अलंकार है ।

रूपक के भेद – आचार्यों ने रूपक के अनगिनत भेट – उपभेद किए हैं : किन्तु इसके तीन प्रधान भेद इस प्रकार हैं –

  1. सांगरूपक
  2. निरंग रूपक
  3. परम्परित रूपक ।

इनका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है

( 1 ) सांगरूपक – जहाँ अवयवोंसहित उपमान का आरोप होता है , वहाँ ‘ सांगरूपक अलंकार होता है ।

उदाहरण –

रनित भुंग – घंटावली , झरति दान मधु – नीर ।

मंद – मंद आवत चल्यौ , कुंजर कुंज – समीर ॥

स्पष्टीकरण – उपर्युक्त उदाहरण में समीर में हाथी का , भंग में घण्टे का और मकरन्द में दान ( मद – जल ) का आरोप किया गया है । इस प्रकार वायु के अवयवों पर हाथी का आरोप होने के कारण यहाँ ‘ सांगरूपक ‘ अलंकार है |

( ख ) निरंग रूपक – जहाँ अवयवों से रहित केवल उपमेय पर उपमान का अभेद आरोप होता है , वहाँ ‘ निरंग रूपक अलंकार होता है । ।

उदाहरण –

इस हृदय – कमल का घिरना , अलि – अलकों की उलझन में ।

आँसू मरन्द का गिरना , मिलना निःश्वास पवन में ।

स्पष्टीकरण – उपर्युक्त उदाहरण में हृदय ( उपमेय ) पर कमल ( उपमान ) का अलकों ( उपमेय ) पर अलि ( उपमान ) का : आँसू ( उपमेय ) पर मरन्द ( उपमान ) का तथा नि : श्वास ( उपमेय ) पर पवन ( उपमान ) का आरोप किया गया है ; अतः यहाँ ‘ निरंग रूपक ‘ अलंकार है ।

( ग ) परम्परित रूपक – जहाँ उपमेय पर एक आरोप दूसरे आरोप का कारण होता है , वहाँ ‘ परम्परित रूपक ‘ अलंकार है ।

उदाहरण-

बाडव – ज्वाला सोती थी , इस प्रणय – सिन्धु के तल में ।

प्यासी मछली – सी आँखें , थीं विकल रूप के जल में ।

स्पष्टीकरण – उपर्युक्त उदाहरण में आँखों ( उपमेय ) पर मछली ( उपमान ) का आरोप , रूप ( उपमेय ) पर न ) के आरोप के कारण किया गया है : अत : यहाँ ‘ परम्परित रूपक ‘ अलंकार है । ‘

रूपक के अन्य  से उदाहरण –

  • सेज नागिनी फिरि फिरि डसी । ।
  • बिरह क आगि कठिन अति मन्दी ।
  • कमल – नैन को छाँड़ि महातम , और देव को ध्यावै ।
  • आपुन पौढ़ि अधर सज्जा पर , कर – पल्लव पलुटावति ।
  • बिधि कुलाल कीन्हे काँचे घट । । ।
  • महिमा मृगी कौन सुकृती की खल – बच बिसिखन बाँची ?

( 6 ) उत्प्रेक्षा अलंकार 

 

परिभाषा – “ जहाँ उपमेय में उपमान की सम्भावना की जाती है , वहाँ ‘ उत्प्रेक्षा ‘ अलंकार होता है । ”

उत्प्रेक्षा को व्यक्त करने के लिए प्रायः मनु , मनहँ , मानो , जानेह . जानो आदि वाचक शब्दों का प्रयोग किया जाता है ।

उत्प्रेक्षा अलनकर का उदाहरण-

सोहत ओढ़े पीतु पटु , स्याम सलोने गात ।

मनौ नीलमनि – सैल पर , आतपु पर्यो प्रभात ॥

स्पष्टीकरण – उपर्युक्त उदाहरण में श्रीकृष्ण के श्याम शरीर ( उपमेय ) पर नीलमणियों के पर्वत ( उपमान ) की तथा पीत – पट ( उपमेय ) पर प्रभात की धूप ( उपमान ) की सम्भावना की गई है ; अत : यहाँ ‘ उत्प्रेक्षा ‘ अलंकार है ।

उत्प्रेक्षा के भेद – उत्प्रेक्षा के तीन प्रधान भेद हैं –

  1. वस्तूत्प्रेक्षा ,
  2. हेतृत्प्रेक्षा ,
  3. फलोत्प्रेक्षा ।

इनका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है –

( क ) वस्तूत्प्रेक्षा – वस्तूत्प्रेक्षा में एक वस्तु की दूसरी वस्तु के रूप में सम्भावना की जाती है ।

( संकेत – उत्प्रेक्षा के प्रसंग में दिया गया उपर्युक्त उदाहरण वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार पर ही आधारित है । )

( ख ) हेतूत्प्रेक्षा – जहाँ अहेतु में हेतु मानकर सम्भावना की जाती है , वहाँ ‘ हेतृत्प्रेक्षा ‘ अलंकार होता है ।

उदाहरण –

मानहुँ बिधि तन – अच्छ छबि , स्वच्छ राखिबै काज ।

दृग – पग पौंछन कौं करे , भूषन पायन्दाज ।

स्पष्टीकरण – उपर्युक्त उदाहरण में हेतु ‘ आभूषण ‘ न होने पर भी उसकी पायदान के रूप में उत्प्रेक्षा की गई है , अतः यहाँ ‘ हेतृत्प्रेक्षा ‘ अलंकार है ।

( ग ) फलोत्प्रेक्षा – जहाँ अफल में फल की सम्भावना का वर्णन हो , वहाँ ‘ फलोत्प्रेक्षा ‘ अलंकार होता है ।

उदाहरण –

पुहुप सुगन्ध करहिं एहि आसा ।

मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा । ।

स्पष्टीकरण – पुष्पों में स्वाभाविक रूप से सुगन्ध होती है , परन्तु यहाँ जायसी ने पुष्पों की सुगन्ध विकीर्ण होने का ‘ फल ‘ बताया है । कवि का तात्पर्य यह है कि पुष्प इसलिए सुगन्ध विकीर्ण करते हैं कि सम्भवतः पदमावती उन्हें अपनी नासिका से लगा ले ।

इस प्रकार उपर्युक्त उदाहरण में अफल में फल की सम्भावना की गई है ; अतः यहाँ ‘ फलोत्प्रेक्षा ‘ अलंकार है ।

( 7 ) प्रतीप अलंकार 

 

परिभाषा – ‘ प्रतीप ‘ शब्द का अर्थ है ‘ विपरीत ‘ । इस अलंकार में उपमा अलंकार से विपरीत स्थिति होती है ; अर्थात् “ जहाँ उपमान का अपकर्ष वर्णित हो , वहाँ ‘ प्रतीप ‘ अलंकार होता है । ” प्रसिद्ध उपमान को उपमेय रूप में कल्पित किया जा सकता है ।

उदाहरण –

देत मुकुति सुन्दर हरषि , सुनि परताप उदार ।

है तेरी तरवार – सी , कालिंदी की धार ॥

स्पष्टीकरण – प्राय : तलवार की धार की तुलना नदी की तेज धार से की जाती है ; किन्तु यहाँ कालिन्दी की धार ( उपमान ) को तलवार की धार ( उपमेय ) के समान बताया गया है ; अत : उपर्युक्त उदाहरण में प्रसिद्ध उपमान का अपकर्ष होने के कारण ‘ प्रतीप ‘ अलंकार है ।

( 8 ) भ्रान्तिमान् अलंकार 

 

परिभाषा – जहाँ समानता के कारण एक वस्तु में किसी दूसरी वस्तु का भ्रम हो , वहाँ ‘ भ्रान्तिमान् ‘ अलंकार होता है ।

उदाहरण –

( क )

पांय महावर देन को , नाइन बैठी आय ।

फिरि – फिरि जानि महावरी , एड़ी मीडति जाय ॥

( ख )

नाक का मोती अधर की कान्ति से ,

बीज दाडिम का समझकर भ्रान्ति से ।

देख उसको ही हुआ शुक मौन है ,

सोचता है अन्य शुक यह कौन है ?

स्पष्टीकरण – उपर्युक्त प्रथम उदाहरण में लाल एडी ( उपमेय ) और महावर ( उपमान ) में लाल रंग की समानता के कारण नाइन को भ्रम उत्पन्न हो गया है

तथा द्वितीय उदाहरण में तोता उर्मिला को नाक के मोती को भ्रमवश अनार का दाना और उसकी नाक को दसरा तोता समझकर भ्रमित हो जाता है ; अतः यहाँ ‘ भ्रान्तिमान् अलंकार है ।

( 9 ) सन्देह अलंकार 

 

परिभाषा – जहाँ एक वस्तु के सम्बन्ध में अनेक वस्तुओं का सन्देह हो और समानता के कारण अनिश्चय की मनोदशा बनी रहे , वहाँ ‘ सन्देह ‘ अलंकार होता है ।

उदाहरण-

कैधौं ब्योमबीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु ,

बीर – रस बीर तरवारि सी उधारी है ।

तुलसी सुरेस चाप , कैंधौं दामिनी कलाप ,

कैंधों चली मेरु तें कृसानु – सरि भारी है । 

स्पष्टीकरण – उपर्युक्त उदाहरण में लंका – दहन के वर्णन में हनुमानजी की जलती पूँछ को देखकर लंकावासियों को यह निश्चित ज्ञान नहीं हो पाता कि

यह हनुमान की जलती हुई पूँछ है या आकाश – मार्ग में अनेक पुच्छल तारे भरे हैं, अथवा वीर रसरूपी वीर ने तलवार निकली है, या यह इन्द्रधनुष है अथवा यह बिजली की तड़क है , या यह सुमेरु पर्वत से अग्नि की सरिता बह चली है ; अत : यहाँ ‘ सन्देह ‘ अलंकार है ।

 

( 10 ) दृष्टान्त अलंकार 

 

परिभाषा – “ जहाँ उपमेय , उपमान के साधारण धर्म में भिन्नता होते जहा उपमय , उपमान के साधारण धर्म में भिन्नता होते हए भी बिम्ब – प्रतिबिम्ब भाव से कथन किया जाए , वहाँ ‘ दृष्टान्त ‘ अलंकार होता है । ”  इसमें प्रथम पंक्ति का प्रतिबिम्ब द्वितीय पंक्ति में झलकता है ।

उदाहरण –

दुसह दुराज प्रजान को, क्यों न बढ़े दुःख – द्वंद ।

अधिक अँधेरो जग करत , मिलि मावस रवि – चंद ॥ 

स्पष्टीकरण – उपर्युक्त उदाहरण में प्रथम पंक्ति उपमेय वाक्य है तथा दूसरी पंक्ति उपमान वाक्य है ; अर्थात् प्रथम पंक्ति का प्रतिबिम्ब द्वितीय पंक्ति में झलकता है । अतः यहाँ ‘ दृष्टान्त ‘ अलंकार है ।

( 11 ) अतिशयोक्ति अलंकार 

 

परिभाषा – जहाँ किसी वस्तु , घटना अथवा परिस्थिति की वास्तविकता का बढ़ा – चढ़ाकर वर्णन किया जाता है , वहाँ ‘ अतिशयोक्ति ‘ अलंकार होता है ।

उदाहरण –

छाले परिबे कैं डरनु , सकै न हाथ छुबाइ ।

झझकत हिमैं गुलाब कैं , हवा झैवैयत पाइ ॥

स्पष्टीकरण – उपर्युक्त उदहारण में नायिका के पाँवों की सुकुमारता का बहुत बढ़ा – चढ़ाकर वर्णन किया गया है , अत : यहाँ ‘ अतिशयोक्ति अलंकार है ।

( 12 ) अनन्वय अलंकार 

 

परिभाषा – जहाँ उपमान के अभाव के कारण उपमेय ही उपमान का स्थान ले लेता है , वहाँ ‘ अनन्वय ‘ अलंकार होता है ।

उदाहरण-

राम – से राम , सिया – सी सिया , सिरमौर बिरंचि बिचारि सँवारे ।

स्पष्टीकरण – उपर्युक्त उदाहरण में राम और सीता ही उपमान हैं तथा राम और सीता ही उपमेय ; अत : यहाँ ‘ अनन्वय ‘ अलंकार है । |

प्रमुख अलंकार – युग्मों में अन्तर 

( 1 ) यमक और श्लेष अलंकार मे अंतर 

 

  • ‘ यमक ‘ में एक शब्द एक से अधिक बार प्रयुक्त होता है और प्रत्येक स्थान पर उसका अलग अर्थ होता है ;

जैसे-  नगन जड़ाती थीं वे नगन जड़ाती हैं । 

( यहाँ दोनों स्थान पर ‘ नगन ‘ शब्द के अलग – अलग अर्थ हैं – नग ( रत्न ) और नग्न । )

  • किन्तु ‘ श्लेष ‘ में एक शब्द के एक बार प्रयुक्त होने पर भी अनेक अर्थ होते हैं ;

जैसे को घटि ये वृषभानुजा वे हलधर के वीर

यहाँ वृषभानुजा के अर्थ हैं – वृषभानु + जा अर्थात् वृषभानु की पुत्री राधा तथा वृषभ + अनुजा अर्थात् वृषभ की बहन गाय । हलधर के अर्थ है – हल को धारण करनेवाला बलराम तथा बैल ।

( 2 ) उपमा और उत्प्रेक्षा मे अंतर 

 

  • ‘ उपमा ‘ में उपमेय की उपमान से समानता बताई जाती है ;

जैसे – पीपर पात सरिस मन डोला 

यहाँ मन की तुलना पीपल के पत्ते से की गई है ।

  • किन्तु ‘ उत्प्रेक्षा ‘ में उपमेय में उपमान की सम्भावना प्रकट की जाती है ।

जैसे सोहत ओढे पीतु पटु , स्याम सलोने गात ।  मनौ नीलमनि – सैल पर , आतपु पर्यो प्रभात ।

यहाँ पर ‘ पीतु पटु ‘ में प्रभात की धूप की तथा श्रीकृष्ण के सलोने शरीर में नीलमणि के पर्वत की सम्भावना की गई है ।

( 3 ) उपमा और रूपक अलंकार मे अंतर 

 

  • ‘ उपमा ‘ में उपमेय की उपमान से समानता बताई जाती है ;

जैसे पीपर पात सरिस मन डोला ।

यहाँ मन की तुलना पीपल के पत्ते से की गई है ।

  • किन्तु ‘ रूपक ‘ में उपमेय में उपमान का भेदरहित आरोप किया जाता है ।

जैसे चरन – कमल बंदी हरिराई ।

यहाँ पर चरणों पर कमल का भेदरहित आरोप किया गया है ।

( 4 ) सन्देह और भ्रान्तिमान अलंकार मे अंतर

 

  • ‘ सन्देह ‘ में उपमेय में उपमान का सन्देह रहता है

जैसे – रस्सी है या साँप ।

  • किन्तु ‘ भ्रान्तिमान् ‘ में उपमेय का ज्ञान नहीं रहता और भ्रमवश एक को दूसरा समझ लिया जाता है ।

जैसे रस्सी नहीं , साँप है । इसके अतिरिक्त ‘ सन्देह ‘ में निरन्तर सन्देह बना रहता है और निश्चय नहीं हो पाता . किन्तु ‘ भ्रान्तिमान ‘ में भ्रम निश्चय में बदल जाता है ।

अंतिम शब्द –

इस पुरे लेख मे हमने विस्तृत रूप से हिन्दी में अलंकार (hindi mein alankar ) किसे कहते हैं, अलंकार के भेद कितने होते हैं, अलंकार के प्रकार पर चर्चा की है | ये पूरा लेख भर्ती परीक्षाओं तथा कक्षा 5,6,7,8,9,10,11,12 आदि के लिए भी बहुत महातपूर्ण है |

सूरदास का जीवन परिचय

सूरदास का जीवन परिचय

Surdas ka Jeevan Parichay in Hindi

(Short Note on Surdas in Hindi)

हिंदी के प्रमुख लेखकों और कवियों के जीवन परिचय के क्रम में हम आज आपके लिए एक और महत्वपूर्ण कवि सूरदास का जीवन परिचय (Surdas ka Jeevan Parichay) लेकर आये हैं सूरदास हिंदी साहित्य के महान कवि थे, उनकी पद शैली भाषा के विभिन्न रूपों को संजोती नज़र आती है। सूरदास की भाषा शैली और काव्य विशेषताएं आदि के बारे में जानकारी के लिए इस लेख को पूरा पढ़ें व लेख के अंत में कम्मेंट के माध्यम से अपने विचार भी हमारे साथ जरूर साँझा करें |

Surdas Ka Jivan Parichay

जीवन परिचय– अष्टछाप के महाकवि सूरदास जी का जन्म सन 1478 ई में हुआ। इन्हे परम कृष्ण भक्त के रूप में भी जाना जाता है |

इनके जन्म स्थान को लेकर विद्वानों मे मतभेद हैं। कुछ विद्वान इनका जन्म स्थान दिल्ली तथा फरीदाबाद के बीच सीही (Sihi) में मानते हैं तो कुछ आगरा के समीप ‘रुनकता या रेणुका’ क्षेत्र को मानते हैं | इन्हे यह सारस्वत ब्राह्मण तथा चंद्रबदराई के वंशज माने जाते हैं।

महाकवि सूरदास बचपन से ही यह विलक्षण प्रतिभा के स्वामी तथा गायन में निपुण थे, इसलिए इन्हे बचपन में ही समाज में ख्याति प्राप्त हो गई थी। किशोरावस्थ आते-आते इनका संसार से मोह भंग होने लगा था और ये सबकुछ त्याग मथुरा के विश्राम घाट चले गए थे।

यहाँ कुछ दिन बिताने के बाद वे वृंदावन (मथुरा) के बीच यमुना किनारे गांव घाट पर रहने लगे थे। यहीं पर उनकी भेंट स्वामी बल्लभाचार्य से हुई तथा उन्होंने अब उन्हें अपना गुरु बना लिया। जब सूरदास जी ने बल्लभाचार्य जी को गुरु बनाया उससे पहले ही वे भगवान श्री कृष्ण से संबंधित विनय व दास्य भाव के पद का गायन करते थे, परंतु अपने गुरु की प्रेरणा के बाद में उन्होंने सख्यए वात्सल्य व माधुर्य भाव के पदों की भी रचना की।

इन्हें श्रीनाथजी के मंदिर में भजन कीर्तन के लिए नियुक्त किया गया था। सूरदास जी नेत्रहीन थे परंतु यहअभी तक तय नहीं हो पाया कि यह जन्म से देखने में असमर्थ थे अथवा बाद में हुए। श्रीनाथजी के मंदिर के समीप ही स्थित ‘परसौली’ नामक गांव में संन् 1583 ई में ये ब्रम्ह में लीन हो गए।

सूरदास की आयु “सूरसारावली‘ के अनुसार उस समय ६७ वर्ष थी।

सूरदास की रचनाएं- (Surdas Ki Rachnayen )

सूरदास जी का पाँच लिखित ग्रन्थ पाए जाते हैं:

  1. सूरसागर – जो सूरदास की प्रसिद्ध रचना है। जिसमें सवा लाख पद संग्रहित थे। किंतु अब सात-आठ हजार पद ही मिलते हैं।
  2. सूरसारावली
  3. साहित्य-लहरी – जिसमें उनके कूट पद संकलित हैं।
  4. नल-दमयन्ती
  5. ब्याहलो
  6. ‘पद  संग्रह’ दुर्लभ पद 

इनमें अंतिम दो संग्रह अप्राप्त हैं |

नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित पुस्तकों की विवरण तालिका में सूरदास के 16 ग्रन्थों का उल्लेख है।

  • सूरसागर
  • सूरसारावली
  • साहित्य लहरी
  • नल-दमयन्ती
  • ब्याहलो
  • दशमस्कंध टीका
  • नागलीला
  • भागवत्
  • गोवर्धन लीला
  • सूरपचीसी
  • सूरसागर सार
  • प्राणप्यारी

ग्रन्थ सम्मिलित हैं। इनमें प्रारम्भ के तीन ग्रंथ ही महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं, साहित्य लहरी की प्राप्त प्रति में बहुत प्रक्षिप्तांश जुड़े हुए हैं।

साहित्य लहरी, सूरसागर, सूर की सारावली।

श्रीकृष्ण जी की बाल-छवि पर लेखनी अनुपम चली।।

श्रोत: विकी पीडिया

सूरदास की काव्यगत विशेषताएं- 

सूर साहित्य के आधार पर आपकी काव्यगत विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

भक्ति भावना-  सूरदास जी पुष्टि-मार्ग में दक्ष थे। अतः उन्होंने श्रीकृष्ण को अपना आराध्य मानकर उनकी लीलाओं का वर्णन अधिकांशत पुष्टिमार्गीय सिद्धांतों के अनुरूप ही किया है |

सूरदास ने विनय व दास्य-भाव के पदों की रचना भी की है, परंतु वह इन सभी पदों की रचना इस संप्रदाय में दीक्षित होने के से पूर्व ही रचे गए कर दिया था।

उन्होंने अपने काव्य में नवधा-भक्ति के साधनों-कीर्तन एवं समरण आदि को स्वीकार किया है। सूरदास ने अपने पदों की रचना  में माधुर्य-भक्ति व प्रेमा भक्ति का अधिक प्रयोग किया है, इसके लिए उन्होंने गोपियों में राधा को माध्यम बनाया है। यथा –

अखियाँ हरि दरसन की भूखी कैसे रहे रूप रसरांची ये बतियाँ सुनी रूखी।

वात्सल्य वर्णन-  सूरदास वात्सल्य पदों की रचना में अद्वितीय हैं। उन्होंने अपने काव्य रचना में बालक श्री कृष्ण की बाल क्रीणाओं का बड़े ही भाव से रचा है, जैसे लगता है की उन्होंने को चित्र ही प्रस्तुत कर दिया हो।

उनका वात्सल्य वर्णन अपने आप में सम्पूर्ण है क्योंकि उन्होंने ये बताया है की कैसे श्री कृष्ण की बाल क्रीड़ा देखा कर पिता नंद जी और माँ यशोदा उल्लसित होतें है।

जब सूरदास जी ने बाल लीला के पदों की रचना की तो मानो वात्सल्य रस का सागर ही भर दिया हो, कभी कृष्ण के जन्म का, ल सरकने का, कभी गाय चराने का तो कभी चंद्रमा के लिए बाल हठ करने का ऐसा सजीव वर्णन किया है मानो सब उन्होंने अपने आँखों से देखा हो।

मैया कबहुं‌ बढेगी चोटी?

किती बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहु है छोटी।‍‍‍‌‍

श्रृंगार वर्णन- महा कवी ने अपने काव्य में श्रृंगार रस का भी खूब रसा स्वादन किया है, उन्होंने अपनी रचना जमे विशद व व्यापक वर्णन किया है।

उन्होंने श्रृंगार कृष्ण की लीलाओं का सजीव वर्णन करते हुए राधा-कृष्ण तथा गोपियों के साथ उनकी उपस्थिति का चित्रण किया है। अधिकांशतः उन्होंने संयोग श्रृंगार का मर्यादित वर्णन किया है परंतु यदा कदा उसमें अश्लीलता का समावेश हो गया है।

प्रकृति वर्णन-  सूरदास जी ने अपने काव्य रचना में प्रकृति का सुंदर और सजीव वर्णन किया है, उनके उनके आराध्या श्री कृष्णा का क्रीड़ा स्थल ही प्राकृतिक दृश्यों और जंगलों से संपन्न ब्रजभूमि थी, अतः ऐसी दशा में सूरदास द्वारा प्रकृति चित्रण बहुत ही सजीव ढंग से किया गया जिससे काव्य का भाव और परिलक्षित होता है।

सामाजिक पक्ष-  सूरदास जी ने समाज के विविध रूप की झांकी जैसे सामाजिक रीतियों, सांस्कृतिक परंपराओं, पर्वों प्रस्तुत करते हुए अधिकांश कृष्ण लीला का वर्णन किया, हालांकि लोक-मंगल की कामना या समाज का उससे कोई सीधा संबंध तो नहीं है परंतु परोक्ष रूप से उन्होंने समाज की अनेक झांकियां प्रस्तुत की है। उ

गीति  काव्य-  सूरदास जी ने अपने प्रमुख ग्रंथ सूरसागर अलग-अलग अध्यायों में बाँटा तो है, परंतु उसमें महाकाव्य का लक्षण नहीं है।

सूरदास जी के पद आज भी संगीतज्ञ के लिए कण्ठहार बने हुए हैं क्योंकि उन्होंने अपने सभी पदों में गीतिकाव्य के तत्वों यथा संक्षिप्तता, भावों की तिव्रानुभूति और संगीतात्मक आदि का सम्मिलित किया है।

हास्य पक्ष- सूर का भ्रमरगीत वियोग-शृंगार का ही उत्कृष्ट ग्रंथ नहीं है, उसमें सगुण और निर्गुण मार्ग का भी वर्णन हुआ है। इसमें विशेषकर उद्धव-गोपी संवादों में हास्य-व्यंग्य का भी रसास्वादन कर सकते हैं |

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सूर के बारे में लिखा है-

सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकार-शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ा करता है। उपमाओं की बाढ़ आ जाती है, रूपकों की वर्षा होने लगती है।

सूरदास की भाषा शैली

भाषा शैली-   सूरदास जी की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है, जिसमें उन्होंने संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ देशज और तद्भव शब्दों का आंशिक रूप से प्रयोग किया है।

सूरदास जी की भाषा प्रसाद एवं माधुर्य गुणों से युक्त है। आपके द्वार प्रयोग की गई भाषा में शब्द एवं अर्थ दोनों प्रकार के अलंकारों का प्रयोग हुआ है।

इनकी रचनओं में अनुप्रास, रूपक अलंकार का वृहद् प्रयोग प्रचुर मात्रा  किया है। सूर ने वार्तालाप शैली का बहुत चतुराई से प्रयोग किया है, इन्होने छोटे से पद में भी इस शैली का प्रयोग किया है।

सूरदास ने अपनी भाषा में तर्क शैली के लिए लोकोक्तियों और सुक्तियों का पर्याप्त मात्रा में उल्लेख किया हैं।

इनके साहित्य में वात्सल्य, भक्ति, शांत, और श्रृंगार रसों का खुलकर प्रयोग हुआ है।

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हिंदी में पत्र लेखन ! हिंदी में पत्र के प्रकार 

हिंदी में पत्र लेखन ! हिंदी में पत्र के प्रकार 

Hindi Writing Letter Format 

Hindi Letter Writing – पत्र लेखन

आधुनकि युग में पत्र-लेखन एक कला है, इसलिए पत्र लिखते समय पत्र में सहज, सरल तथा सामान्य बोलचाल की भाषा का प्रयोग करना ही सर्वथा उचित होता है, इससे लाभ ये होता है कि पत्र को प्राप्त करने वाला पत्र में व्यक्त भावों और पत्र के उद्देश्य को अच्छी प्रकार से समझ सके और उसका उत्तर दे सके।

पत्र-लेखन ऐसी कला है जिससे हम अपने भावों और विचारों को सहज रूप से व्यक्त कर सकते हैं।  जिन बातों को प्रदर्शित करने में लोग हिचकिचाते हैं, उन बातों को पत्रों के माध्यम से आसानी से समझाया या कहा जा सकता है।

पत्र की आवश्यकता क्यों है?

अब बात आती है कि पत्र की आवश्यकता क्यों पड़ती है, पत्र अपने से दूर रहने वाले अपने सबंधियों अथवा मित्रों की कुशलता जानने के लिए और अपनी कुशलता का समाचार देने के लिए पत्र लिखे जाते हैं। भले ही आजकल हमारे पास बातचीत करने के लिए और कुशलछेम पूछने के लिए अनेक आधुनिक साधन उपलब्ध हैं, जैसे- टेलीफ़ोन, मोबाइल फ़ोन, ईमेल आदि।

प्रश्न यह उठता है कि फिर भी पत्र-लेखन सीखना क्यों आवश्यक है? पत्र लिखना महत्वपूर्ण ही नहीं अत्यंत आवश्यक भी है, फ़ोन आदि पर बातचीत अस्थायी होती है, इसके विपरीत लिखित दस्तावेज स्थायी रूप ले लेता है। उदाहरण- जब आप विद्यालय नहीं जा पाते, तब अवकाश के लिए प्रार्थना पत्र लिखना पड़ता है।

Types of Letter in Hindi (Letter In Hindi Format)- पत्रों के प्रकार 

मुख्य रूप से पत्रों को लेखन के आधार पर निम्न दो भागों में विभाजित किया जा सकता है –

  1.  औपचारिक-पत्र (Formal Letter)
  2.  अनौपचारिक-पत्र (Informal Letter)
औपचारिक पत्र किसे कहते हैं? ( What is formal letter in Hindi )

उनलोगों को लिखा जाने वाला पत्र औपचारिक पत्र कहलाता है जिनसे हमारा कोई निजी संबंध ना हो। औपचारिक पत्रों को केवल किसी विशेष कार्य से सम्बंधित तथ्यों पर ही केंद्रित रखा जाता है।

व्यवसाय से संबंधी, प्रधानाचार्य को लिखे प्रार्थना पत्र, आवेदन पत्र, सरकारी विभागों को लिखे गए पत्र, संपादक के नाम पत्र आदि औपचारिक-पत्र के उदहारण (example of formal letter ) हैं।

हमें Hindi Writing Letter के औपचारिक पत्र लेखन में मुख्य रूप से संदेश, सूचना एवं तथ्यों को अधिक महत्व देना पड़ता है। इसमें कम से कम शब्दों में अपनी बात को पूरा करते हुए सन्दर्भ को स्पष्ट करना पड़ता है, अर्थात पत्र प्राप्त करने वालों को बात आसानी से समझ आये ऐसी भाषा का प्रयोग तथा स्वतः पूर्णता अर्थात पूरी बात एक ही पत्र में कहने की अपेक्षा की जाती है।

 औपचारिक-पत्र के प्रकार (Types of formal letter)

औपचारिक-पत्र को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

(1) प्रार्थना-पत्र – जिन पत्रों में निवेदन, आग्रह अथवा प्रार्थना की जाती है, वे ‘प्रार्थना-पत्र’ कहलाते हैं। प्रार्थना पत्र में अवकाश, शिकायत, सुधार, आवेदन आदि के लिए लिखे गए पत्र आते हैं। ये पत्र प्रायः स्कुल के प्रधानाचार्य से लेकर किसी सरकारी विभाग के अधिकारी को भी लिखे जा सकते हैं।

(2) कार्यालयी-पत्र – जो पत्र कार्यालयी काम-काज के लिए लिखे जाते हैं, वे ‘कार्यालयी-पत्र’ कहलाते हैं। ये सरकारी अफसरों या अधिकारियों, स्कूल और कॉलेज के प्रधानाध्यापकों और प्राचार्यों को लिखे जाते हैं। इन पत्रों में डाक अधीक्षक, समाचार पत्र के सम्पादक, परिवहन विभाग, थाना प्रभारी, स्कूल प्रधानाचार्य आदि को लिखे गए पत्र आते हैं।

(3) व्यवसायिक-पत्र – व्यवसाय में सामान खरीदने व बेचने अथवा रुपयों के लेन-देन के लिए जो पत्र लिखे जाते हैं, उन्हें ‘व्यवसायिक-पत्र’ कहते हैं। इन पत्रों में दुकानदार, प्रकाशक, व्यापारी, कंपनी आदि को लिखे गए पत्र आते हैं।

औपचारिक-पत्र लिखते समय ध्यान रखने योग्य बातें –
  1. औपचारिक-पत्र लेखन नियमों में बंधे हुए होते हैं।
  2. इस प्रकार के पत्रों में भाषा का प्रयोग करते समय बहुत ही सावधानी रखनी पड़ती है। इसमें अनावश्यक बातों (कुशल-मंगल समाचार आदि) का उल्लेख नहीं किया जाता।
  3. जब आप पत्र लिख रहे हों तो ध्यान रखें कि आरंभ व अंत प्रभावशाली होना चाहिए।
  4. सदैव पत्र की भाषा-सरल, लेख-स्पष्ट व सुंदर होना चाहिए।
  5. यदि आप विद्यार्थी है और कक्षा अथवा परीक्षा भवन से पत्र का प्रारूप लिख रहे हैं, तो अपने वास्त्विक नाम और पता के स्थान पर क० ख० ग०, विद्यालय का नाम लिखना चाहिए।
  6. पत्र प्रारम्भ करने से पहले पृष्ठ के बाई ओर हसिया छोड़ना चाहिए और इस हाशिए (Margin Line) के साथ मिलाकर लिखना चाहिए।
  7. औपचारिक पत्र को एक पृष्ठ में ही लिखने और समाप्त करने का प्रयास करना चाहिए, जिससे पत्र के विषय की तारतम्यता/लयबद्धता बनी रहे।
  8. प्रधानाचार्य को पत्र लिखते समय प्रेषक के स्थान पर अपना नाम, कक्षा व दिनांक लिखना चाहिए।
औपचारिक-पत्र (प्रारूप) के निम्नलिखित सात अंग होते हैं – (Elements of formal letter)
  1.  प्रारम्भ : सबसे पहले पृष्ठ के बाएं कोने पर ऊपर ‘सेवा में’ लिख कर, फिर पंक्ति बदल कर कुछ स्थान छोड़ कर पत्र प्रापक का पदनाम तथा पता लिख कर पत्र की शुरुआत करें।
  2. विषय – यह बहुत ही महत्वपूर्ण है की आप किस विषय में ध्यानकर्षण करना चाहते है, उसे केवल एक ही वाक्य में शब्द-संकेतों प्रदर्शित कर दें ।
  3.  संबोधन – जिसे पत्र लिखा जा रहा है, उसके लिए महोदय/महोदया, माननीय आदि शिष्टाचारपूर्ण शब्दों का प्रयोग करना सर्वथा उचित रहता है।
  4.  विषय-वस्तु– इसे दो अलग-अलग अनुच्छेदों में लिखना चाहिए-
  5. पहला अनुच्छेद – “सविनय निवेदन यह है कि” से वाक्य आरंभ करना चाहिए, फिर अपनी समस्या के बारे में लिखें।
  6. दूसरा अनुच्छेद –आपसे विनम्र निवेदन है कि” लिख कर आप उनसे क्या अपेक्षा है या कह सकते हैं कि आप क्या अनुरोध कर रहे हैं, उसे लिखें।
  7. हस्ताक्षर व नाम- धन्यवाद या कष्ट के लिए क्षमा जैसे शब्दों का प्रयोग करना चाहिए और अंत में भवदीय, भवदीया, प्रार्थी लिखकर अपने हस्ताक्षर करें तथा उसके नीचे अपना नाम लिखें। (सबसे नीचे दाएं तरफ)
  8. प्रेषक का पता- शहर का मुहल्ला/इलाका, शहर, पिनकोड आदि।
  9.  दिनांक।
अन्य ध्यान योग्य बातें :
औपचारिक पत्र लेखन में अन्य ध्यानयोग्य बातें जिससे ये प्रभावशाली पत्र लेखन किया जा सकता है :-
  • औपचारिक-पत्र की प्रशस्ति (आरम्भ में लिखे जाने वाले आदरपूर्वक शब्द), अभिवादन व समाप्ति में किन शब्दों का प्रयोग करना चाहिए-

प्रशस्ति (आरम्भ में लिखे जाने वाले आदरपूर्वक शब्द) – श्रीमान, श्रीयुत, मान्यवर, महोदय आदि।

  • अभिवादन – औपचारिक-पत्रों में अभिवादन नहीं लिखा जाता।
  • समाप्ति – आपका आज्ञाकारी शिष्य/आज्ञाकारिणी शिष्या, भवदीय/भवदीया, निवेदक/निवेदिका, शुभचिंतक, प्रार्थी आदि।

अनौपचारिक पत्र किसे कहते हैं :

अनौपचारिक पत्र किसे कहते हैं (What is informal letter in Hindi )-

अनौपचारिक पत्र को हम व्यक्तिगत पत्र भी कहते हैं | अनौपचारिक पत्र उन व्यक्तियों को लिखे जाते हैं, जिनसे पत्र लेखक का व्यक्तिगत या निजी सम्बन्ध होता है।

अपने मित्रों, माता-पिता, अन्य सगे सम्बन्धियों को लिखे जाने वाले पत्रों को अनौपचारिक-पत्रों की श्रेणी में रखे जाते हैं। अनौपचारिक पत्रों में व्यक्तिगत तथ्यों का उल्लेख करते हुए आत्मीयता का भाव प्रकट करना होता है। इस तरह के पत्र लेखन में लेखक व्यक्तिगत बातों को पूछता है और अपनी निजी बातें बताता है |

अनौपचारिक-पत्र के प्रकार (types of informal letter)

अनौपचारिक पत्रों में निम्नलिखित प्रकार के पत्र रखे जा सकते है-

  • बधाई पत्र
  • विशेष अवसरों पर लिखे गये पत्र
  • सांत्वना पत्र
  • किसी प्रकार की जानकारी देने के लिए
  • कोई सलाह आदि देने के लिए
  • शुभकामना पत्र
  • निमंत्रण पत्र
अनौपचारिक-पत्र लिखते समय ध्यान रखने योग्य बातें :
  • भाषा सरल व स्पष्ट और मृदुभाषी होनी चाहिए।
  • अनौपचारिक पत्र लिखते समय लेखक तथा प्राप्तकर्ता की आयु, योग्यता, पद आदि का ध्यान रखते हुए शब्दों का चयन करना चाहिए।
  • पत्र लेखन में विषय भले ही बड़ा हो लेकिन उसे कम से कम बातों में स्पष्ट कर देना चाहिए।
  • पत्र में सुस्पष्ट लेखनी होनी चाहिए।
  • लेखन में सदैव ध्यान रखे कि आरंभ व अंत प्रभावशाली होना चाहिए, और इसे अच्छे शब्दों का प्रयोग करके बना सकते हैं।
  • पत्र प्रेषक व प्रापक वाले का पता साफ व स्पष्ट लिखा होना चाहिए।
  • अपना पता और दिनांक लिखने के बाद एक पंक्ति छोड़कर आगे लिखना चाहिए।
  • यदि आप छात्र है और कक्षा/परीक्षा भवन से पत्र लिख रहे हैं तो, अपने नाम के स्थान पर क० ख० ग० तथा पते के स्थान पर कक्षा/परीक्षा भवन लिखना चाहिए।
  • एक अच्छे पत्र में त्रुटि का कोई स्थान नहीं होता है इसलिए पत्र में काट छांट नही होनी चाहिए।
अनौपचारिक पत्रों का प्रारूप –

1. प्रेषक परिचय और पता-  ऊपर बाईं ओर पत्र भेजने वाले (प्रेषक) का नाम व पता लिखा जाता है।
2. दिनांक- जिस दिन पत्र लिखा जा रहा है, उस दिन की तारीख।
3. विषय- अनौपचारिक पत्रों में विषय का प्रयोग नहीं किया जाता है | सिर्फ औपचारिक पत्रों में विषय का प्रयोग किया जाता है |
4. संबोधन- जिस व्यक्ति को पत्र लिखा जा रहा है, उससे संबंधों के आधार पर संबोधन शब्दों का प्रयोग किया जाता है।
5. अभिवादन- जिस को पत्र लिखा जा रहा है उसके साथ संबंध के अनुसार, जैसे कि सादर प्रणाम, चरण स्पर्श, नमस्ते, नमस्कार, मधुर प्यार आदि |
6. मुख्य विषय- मुख्य विषय को मुख्यतः तीन अनुच्छेदों में विभाजित करना चाहिए।
      पहला अनुछेद :    इसकी शुरुआत कुछ इस प्रकार होनी चाहिए –  “हम/मैं यहाँ कुशल हूँ, आशा करता हूँ कि आप भी वहाँ कुशल होंगे।”
      दूसरा अनुच्छेद :  पत्र के इस भाग में पत्र की कारन लिखा जा रहा है उन बातों का उल्लेख किया जाना चाहिए।
      तीसरा अनुछेद:    पात्र समाप्त करने से पहले, कुछ वाक्य अपने परिवार व सबंधियों के कुशलता के लिए लिखने चाहिए। जैसे कि- “मेरी तरफ से बड़ों को प्रणाम, छोटों को आशीर्वाद व प्यार
आदि”।
7. समाप्ति- अंत में प्रेषक का सम्बन्ध जैसे- आपका पुत्र, आपकी पुत्री, आपकी की भतीजी आदि”।

अनौपचारिक-पत्र की प्रशस्ति : आरम्भ और समाप्ति में किन शब्दों का प्रयोग करना चाहिए-

(1) अपने से बड़े आदरणीय संबंधियों के लिए-
प्रशस्ति – आदरणीय, पूजनीय, पूज्य, श्रद्धेय आदि।
अभिवादन – सादर प्रणाम, सादर चरणस्पर्श, सादर नमस्कार आदि।
समाप्ति – आपका बेटा, पोता, नाती, बेटी, पोती, नातिन, भतीजा आदि।

(2) अपने से छोटों या बराबर वालों के लिए-
प्रशस्ति – प्रिय, चिरंजीव, प्यारे, प्रिय मित्र आदि।
अभिवादन – मधुर स्मृतियाँ, सदा खुश रहो, सुखी रहो, आशीर्वाद आदि।
समाप्ति – तुम्हारा, तुम्हारा मित्र, तुम्हारा हितैषी, तुम्हारा शुभचिंतक आदि।

औपचारिक और अनौपचारिक पत्रों में अंतर- (Difference between formal and informal letter)

औपचारिक पत्र (formal letter in Hindi) –

उनलोगों को लिखा जाने वाला पत्र औपचारिक पत्र कहलाता है जिनसे हमारा कोई निजी संबंध ना हो। औपचारिक पत्रों को केवल किसी विशेष कार्य से सम्बंधित तथ्यों पर ही केंद्रित रखा जाता है।

व्यवसाय से संबंधी, आवेदन पत्र, प्रार्थना पत्र,  सरकारी विभागों को लिखे गए पत्र  आदि औपचारिक-पत्र कहलाते हैं। औपचारिक पत्रों की भाषा सहज और शिष्टापूर्ण होती है। इन पत्रों में केवल काम या अपनी समस्या के बारे में ही बात कही जाती है।

अनौपचारिक पत्र (informal letter in Hindi ) –

Hindi Writing Letter में अनौपचारिक पत्र उन लोगों को लिखा जाता है जिनसे हमारा व्यक्तिगत सम्बन्ध रहता है। इसे निजी पत्र भी कहते हैं | अनौपचारिक पत्र अपने परिवार के लोगों को जैसे माता-पिता, भाई-बहन, सगे-सम्बन्धिओं और मित्रों को उनका हालचाल पूछने, निमंत्रण देने और सूचना आदि देने के लिए लिखे जाते हैं।

इन पत्रों में भाषा के प्रयोग में थोड़ी ढ़ील की जा सकती है। इन पत्रों में शब्दों की संख्या असीमित हो सकती है क्योंकि इन पत्रों में इधर-उधर की बातों का भी समावेश होता है।

निष्कर्ष :
 किसी भी भाषा में पत्र लेखन एक कला है और उसके विषय में जानना बहुत महत्वपूर्ण है , Hindi Writing Letter भी एक महत्वपूर्ण विषय है इसी लिए हमने इस लेख में Hindi Writing Letter पर वृहद् चर्चा किया है |
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TET Online Practice Set-3 Hindi

TET Online Practice Set-3 Hindi

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UPTET, CTET, Bihar TET

ये TET Online Practice Set-3 Hindi पुरे TET Online Practice Set-3 का हिंदी  का एक भाग है| यह 30 अपठित प्रश्नों का संग्रह है जो हिंदी और हिंदी शिक्षण से लिया गया है |

इस प्रश्नावली में हिंदी और सामान्यज्ञान से जुड़े प्रश्नों को सम्लित किया गया है|

Other Practice Sets

जब आप इस TET Online Practice Set-3 Hindi को पूरा कर लेंगे तब अंत में आपके द्वारा प्राप्त किये गए अंक आपको दिखेगा और सभी प्रश्नों के सही उत्तर भी बताये जांयेंगे |

इस TEST से आपको UPTET, CTET, Bihar TET, Rajasthan Tet और Madhya Pradesh TET आदि में मदत मिलेगी |


TET Online Practice Set-3 Hindi

1.  . भाषा में सतत और व्यापक आकलन का उद्देश्य है ।

 
 
 
 

2. ये ऐसे साधन है , जिनमें बालकों की दृश्य – श्रव्य दोनों ही इन्द्रियों का प्रयोग एक साथ होता है

 
 
 
 

3. . इसके विपरीत हर घर की दूसरी सच्चाई यह भी है कि . . . . . . . ‘ वाक्य के रेखांकित अंश का समानार्थी शब्द है । 

 
 
 
 

4.  निम्नलिखित विकल्पों में से ‘ तत्सम शब्द है 

 
 
 
 

5.  वे सभी साधन जिन्हें सुनकर बालक पाठ को सरलता एवं शीघ्रता से सीख सके , कहलाते हैं : 

 
 
 
 

6.  समाज और सत्ता किसके प्रति सजग नहीं है

 
 
 
 

7.  निम्न में तत्पुरुष समास का उदाहरण है : 

 
 
 
 

8.  माता – पिता ‘ शब्द – युग्म है :

 
 
 
 

9. . भाषा हमारे परिवेश में बिखरी मिलती है । यह कथन किस पर लागू नहा होता ? 

 
 
 
 

10.  गुडाकेश ‘ का सन्धि – विच्छेद है :

 
 
 
 

11. रामधारी सिंह ‘ दिनकर ‘ की रचना नहीं है ।

 
 
 
 

12.  प्राथमिक कक्षाओं में रोल प्ले ( भूमिका निर्वाह ) का उददेश्य होना चाहिए । 

 
 
 
 

13. तुकबंदी के कारण कौन – सा शब्द बदले हुए रूप से प्रयुक्त हुआ है ?

 
 
 
 

14. प्राथमिक स्तर पर भाषा – शिक्षण की प्राथमिकता होनी चाहिए ।

 
 
 
 

15. शिक्षण का प्रयोग मात्र ज्ञान करता है : 

 
 
 
 

16. भाषा के बारे में कौन – सा कथन उचित है ? 

 
 
 
 

17.  शिक्षण के लिए कितना समय उपलब्ध होगा कितना कार्य कक्षा में किया जाना है अन्य सब आधारों पर वितरित किया जाकर की जानकारी आवश्यक है ? 

 
 
 
 

18.  कौन – सा शब्द ‘ अव्यय ‘ नहीं है ? 

 
 
 
 

19.  रीतिवाचक क्रिया – विशेषण ‘ है : 

 
 
 
 

20.  भी ‘ शब्द है : 

 
 
 
 

21. ‘ प्र ‘ उपसर्ग से बनने वाला शब्द – समूह है :

 
 
 
 

22. . इनके माध्यम से जिन चित्रों , स्ट्रिपों व शाब्दिक उदाहरणों को देखा या पढ़ा जा सकता है वे छात्रों के लिए कहलाती हैं : 

 
 
 
 

23.  लेखक के अनुसार सबसे पहले क्या जानना जरूरी है ? 

 
 
 
 

24.  पढ़ने का प्रारंभ ।

 
 
 
 

25.  भाषा – कक्षा में विभिन्न दृश्य – श्रव्य साधनों के उपयोग का उद्देश्य नहीं है ।

 
 
 
 

26. प्राथमिक स्तर पर हिंदी भाषा – शिक्षण के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है । 

 
 
 
 

27. घर की भाषा और विद्यालय में पढ़ाई जाने वाली भाषा : 

 
 
 
 

28.  माता – पिता को बच्चों की सही शिक्षा के बारे में जानना क्यों जरूरी है

 
 
 
 

29. इनमें से कौन – सा ‘ वसुधा का समानार्थी है ?

 
 
 
 

30. 46 . सामान्य शिक्षण में प्रयुक्त होने वाले किसी एक कौशल में कुशलता अर्जित करने के लिए किया जाता है : 

 
 
 
 

Question 1 of 30



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इस प्रश्नावली में हिंदी और सामान्यज्ञान से जुड़े प्रश्नों को सम्लित किया गया है|

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