महावीरप्रसाद द्विवेदी जीवन परिचय
Jeevan Parichay of Mahaveer Prasad Dwivedi
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी (1864–1938) एक के महान साहित्यकार, पत्रकार एवं युगप्रवर्तक थे। उन्होने हिंदी साहित्य की अतुलनीय सेवा के लिए सदैव याद किया जाएगा | उनके इस अविश्मरणीय योगदान के कारण आधुनिक हिंदी साहित्य का दूसरा युग ‘द्विवेदी युग’ (जो 1900–1920 से माना जाता है) के नाम से जाना जाता है। उन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन को गति व दिशा देने में भी उनका अतुलनीय योगदान दिया था |
अन्य जीवन परिचय :
जीवन परिचय :
हिन्दी गद्य साहित्य के युग – विधायक महावीरप्रसाद द्विवेदी का जन्म 5 मई , सन् 1864 ई० में रायबरेली जिले के दौलतपुर गाँव में हुआ था । कहा जाता है कि इनके पिता रामसहाय द्विवेदी को महावीर का इष्ट था , इसीलिए इन्होंने पुत्र का नाम महावीरसहाय रखा । इनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में हुई । पाठशाला के प्रधानाध्यापक ने भूलवश इनका नाम महावीरप्रसाद लिख दिया था । यह भूल हिन्दी साहित्य में स्थायी बन गयी ।
तेरह वर्ष की अवस्था में अंग्रेजी पढ़ने के लिए इन्होंने रायबरेली के जिला स्कूल में प्रवेश लिया । यहाँ संस्कृत के अभाव में इनको वैकल्पिक विषय फ़ारसी लेना पड़ा । यहाँ एक वर्ष व्यतीत करने के बाद कुछ दिनों तक उन्नाव जिले के रंजीत पुरवा स्कूल में और कुछ दिनों तक फतेहपुर में पढ़ने के पश्चात् ये पिता के पास बम्बई ( मुंबई ) चले गये । वहाँ इन्होंने संस्कृत , गुजराती ,मराठी और अंग्रेजी का अभ्यास किया ।
इनकी ज्ञान – पिपासा कभी तृप्त न हुई , किन्तु जीविका के लिए इन्होने रेलवे में नौकरी कर ली। रेलवे में विभिन्न पदों पर कार्य करने के बाद झाँसी में डिस्टिक्ट ट्रैफिक सुपरिण्टेण्डेण्ट के कार्यालय में मुख्य लिपिक हो गये । पांच वर्ष बाद उच्चाधिकारी से खिन्न होकर इन्होंने नौकरी से त्याग – पत्र दे दिया ।
इनकी साहित्य साधना का क्रम सरकारी नौकरी के नीरस वातावरण में भी चल रहा था और इस अवधि में इनके संस्कृत ग्रंथो के कई अनुवाद और कुछ आलोचनाएँ प्रकाश में आ चुकी थीं । सन् 1903 ई0 में द्विवेदीजी ने ‘ सरस्वती ‘ पत्रिका का सम्पादन स्वीकार किया । 1920 ई0 तक यह गुरुतर दायित्व इन्होंने निष्ठापूर्वक निभाया । ‘ सरस्वती ‘ से अलग होने पर इनके जीवन के अन्तिम अठारह वर्ष गाँव के नीरस वातावरण में बड़ी कठिनाई से व्यतीत हुए । 21 दिसम्बर सन् 1938 ई० को रायबरेली में हिन्दी के इस यशस्वी साहित्यकार का स्वर्गवास हो गया |
हिन्दी साहित्य में द्विवेदीजी का मूल्यांकन तत्कालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में किया जा सकता है । वह समय हिन्दी के कलात्मक विकास का नहीं , हिन्दी के अभावों की पूर्ति का था । द्विवेदी जी ने ज्ञान के विविध क्षेत्रों , इतिहास , अर्थशास्त्र , विज्ञान , पुरातत्त्व , चिकित्सा , राजनीति , जीवनी आदि से सामग्री लेकर हिन्दी के अभावों की पूर्ति की ।
हिन्दी गद्य को माँजने – सँवारने और परिष्कृत करने में आजीवन संलग्न रहे । इन्हें हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने ‘ साहित्य वाचस्पति एवं नागरी प्रचारिणी सभा ने ‘ आचार्य ‘ की उपाधि से सम्मानित किया था । उस समय टीका – टिप्पणी करके सही मार्ग का निर्देशन देनेवाला कोई न था । इन्होंने इस अभाव को दूर किया तथा भाषा के स्वरूप – संगठन , वाक्य – विन्यास विराम – चिह्नों के प्रयोग तथा व्याकरण की शुद्धता पर विशेष बल दिया । लेखकों की अशुद्धियों को रेखांकित किया । स्वयं लिखकर तथा दूसरों से लिखवाकर इन्होंने हिन्दी गद्य का पुष्ट और परिमार्जित किया । हिन्दी गद्य के विकास में इनका ऐतिहासिक महत्त्व है ।
द्विवेदीजी ने 50 से अधिक ग्रन्थों तथा सैकड़ों निबन्धों की रचना की थी । इनके मौलिक ग्रंथों में –
श्रोत : विकिपीडिआ
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मौलिक पद्य रचनाएँ :
- देवी स्तुति-शतक (1892 ई)
- कान्यकुब्जावलीव्रतम (1898 ई)
- समाचार पत्र सम्पादन स्तवः (1898 ई)
- नागरी (1900 ई.)काव्य मंजूषा (1903 ई)
- कान्यकुब्ज-अबला-विलाप (1907 ई)
- कविता कलाप (1909 ई)
- कविता कलाप (1909 ई)
- सुमन (1923 ई)
मौलिक गद्य रचनाएँ
- नैषध चरित्र चर्चा (1899 ई)
- हिन्दी शिक्षावली तृतीय भाग की समालोचना (1901 ई)
- वैज्ञानिक कोश (1906 ई)
- नाट्यशास्त्र (1912 ई)
- विक्रमांकदेवचरितचर्चा (1907 ई)
- हिन्दी भाषा की उत्पत्ति (1907 ई)
- सम्पत्ति-शास्त्र (1907 ई)
- कौटिल्य कुठार (1907 ई)
- कालिदास की निरकुंशता (1912 ई)
- वनिता-विलाप (1918 ई)
- औद्यागिकी (1920 ई)
- रसज्ञ रंजन (1920 ई)
- कालिदास और उनकी कविता (1920 ई)
- सुकवि संकीर्तन (1924 ई)
- अतीत स्मृति (1924 ई)
- अदभुत आलाप (1924 ई)
- महिलामोद (1925 ई)
- वैचित्र्य चित्रण (1926 ई)
- साहित्यालाप (1926 ई)
- विज्ञ विनोद (1926 ई)
- आध्यात्मिकी (1928 ई)
- साहित्य सन्दर्भ (1928 ई)
- कोविद कीर्तन (1928 ई)
- विदेशी विद्वान (1928 ई)
- दृश्य दर्शन (1928 ई)
- आलोचनांजलि (1928 ई)
- प्राचीन चिह्न (1929 ई)
- चरित चर्या (1930 ई)
- चरित्र चित्रण (1929 ई)
- पुरातत्त्व प्रसंग (1929 ई)
- साहित्य सीकर (1930 ई)
- विज्ञान वार्ता (1930 ई)
- वाग्विलास (1930 ई)
- संकलन (1931 ई)
- विचार-विमर्श (1931 ई)
- पुरावृत्त (1933 ई)
पद्य (अनूदित)
- विनय विनोद (1889 ई.)- भर्तृहरि के ‘वैराग्यशतक’ का दोहों में अनुवाद
- विहार वाटिका (1890 ई.)- गीत गोविन्द का भावानुवाद
- स्नेह माला (1890 ई.)- भर्तृहरि के ‘शृंगार शतक’ का दोहों में अनुवाद
- श्री महिम्न स्तोत्र (1891 ई.)- संस्कृत के ‘महिम्न स्तोत्र’ का संस्कृत वृत्तों में अनुवाद
- गंगा लहरी (1891 ई.)- पण्डितराज जगन्नाथ की ‘गंगालहरी’ का सवैयों में अनुवाद
- ऋतुतरंगिणी (1891 ई.)- कालिदास के ‘ऋतुसंहार’ का छायानुवाद
- सोहागरात (अप्रकाशित)- बाइरन के ‘ब्राइडल नाइट’ का छायानुवाद
- कुमारसम्भवसार (1902 ई.)- कालिदास के ‘कुमारसम्भवम्’ के प्रथम पाँच सर्गों का सारांश
गद्य (अनूदित)
- भामिनी-विलास (1891ई.)- पण्डितराज जगन्नाथ के ‘भामिनी विलास’ का अनुवाद
- अमृत लहरी (1896ई.)- पण्डितराज जगन्नाथ के ‘यमुना स्तोत्र’ का भावानुवाद
- बेकन-विचार-रत्नावली (1901ई.)- बेकन के प्रसिद्ध निबन्धों का अनुवाद
- शिक्षा (1906ई.)- हर्बर्ट स्पेंसर के ‘एजुकेशन’ का अनुवाद
- स्वाधीनता (1907ई.)- जॉन स्टुअर्ट मिल के ‘ऑन लिबर्टी’ का अनुवाद
- जल चिकित्सा (1907ई.)- जर्मन लेखक लुई कोने की जर्मन पुस्तक के अंग्रेजी अनुवाद का अनुवाद
- हिन्दी महाभारत (1908ई.)-‘महाभारत’ की कथा का हिन्दी रूपान्तर
- रघुवंश (1912ई.)- कालिदास के ‘रघुवंशम्’ महाकाव्य का भाषानुवाद
- वेणी-संहार (1913ई.)- संस्कृत कवि भट्टनारायण के ‘वेणीसंहार’ नाटक का अनुवाद
- कुमार सम्भव (1915ई.)- कालिदास के ‘कुमार सम्भव’ का अनुवाद
- मेघदूत (1917ई.)- कालिदास के ‘मेघदूत’ का अनुवाद
- किरातार्जुनीय (1917ई.)- भारवि के ‘किरातार्जुनीयम्’ का अनुवाद
- प्राचीन पण्डित और कवि (1918ई.)- अन्य भाषाओं के लेखों के आधार पर प्राचीन कवियों और पण्डितों का परिचय
- आख्यायिका सप्तक (1927ई.)- अन्य भाषाओं की चुनी हुई सात आख्यायिकाओं का छायानुवाद
भाषा
द्विवेदी जी सरल और सुबोध भाषा भाषा को अपनाते हुए अन्य लेखकों को भी इसी तरह के प्रयोग का सुझाव दिया | उन्होंने अपनी भाषा में न किसी भी प्रकार की अधिकता स्थान नहीं दिया , ना तो संस्कृत के तत्सम शब्दों की अधिकता है और न उर्दू-फारसी के अप्रचलित शब्दों की भरमार किये | वे गृह के स्थान पर घर और उच्च के स्थान पर ऊँचा लिखना अधिक पसंद करते थे। द्विवेदी जी ने अपनी भाषा में उर्दू और फारसी के शब्दों का निस्संकोच प्रयोग किया, किंतु इस प्रयोग में उन्होंने केवल प्रचलित शब्दों को ही अपनाया।
शैली
द्विवेदी जी की शैली के मुख्यतः तीन रूप दृष्टिगत होते हैं-
परिचयात्मक शैली
द्विवेदी जी ने लिखने सदैव नये-नये विषयों चुना | विषय नये और प्रारंभिक होने के कारण द्विवेदी जी ने उनका लेखन सरल और सुबोध शैली में किया । इन विषयों को लिखते समय द्विवेदी जी ने एक शिक्षक की भांति एक बात को कई बार दुहराते हुए, समझते है ताकि पाठकों की समझ में वह भली प्रकार आ जाए। इस प्रकार लेखों की शैली परिचयात्मक शैली है।
आलोचनात्मक शैली
हिंदी भाषा के प्रचलित दोषों को दूर करने के लिए द्विवेदी जी इस शैली में लिखते थे। इस शैली में लिखकर उन्होंने विरोधियों को मुंह-तोड़ उत्तर दिया। यह शैली ओजपूर्ण है। इसमें प्रवाह है और इसकी भाषा गंभीर है। कहीं-कहीं यह शैली ओजपूर्ण न होकर व्यंग्यात्मक हो जाती है। ऐसे स्थलों पर शब्दों में चुलबुलाहट और वाक्यों में सरलता रहती है। ‘इस म्यूनिसिपाल्टी के चेयरमैन (जिसे अब कुछ लोग कुर्सी मैन भी कहने लगे हैं) श्रीमान बूचा शाह हैं। बाप दादे की कमाई का लाखों रुपया आपके घर भरा हैं। पढ़े-लिखे आप राम का नाम हैं। चेयरमैन आप सिर्फ़ इसलिए हुए हैं कि अपनी कार गुज़ारी गवर्नमेंट को दिखाकर आप राय बहादुर बन जाएं और खुशामदियों से आठ पहर चौंसठ घर-घिरे रहें।’
विचारात्मक अथवा गवेषणात्मक शैली
गंभीर साहित्यिक विषयों के विवेचन में द्विवेदी जी ने इस शैली को अपनाया है। इस शैली के भी दो रूप मिलते हैं। पहला रूप उन लेखों में मिलता है जो किसी विवादग्रस्त विषय को लेकर जनसाधारण को समझाने के लिए लिखे गए हैं। इसमें वाक्य छोटे-छोटे हैं। भाषा सरल है। दूसरा रूप उन लेखों में पाया जाता है जो विद्वानों को संबोधित कर लिखे गए हैं। इसमें वाक्य अपेक्षाकृत लंबे हैं। भाषा कुछ क्लिष्ट है। उदाहरण के लिए –
- अप्समार और विक्षिप्तता मानसिक विकार या रोग है। उसका संबंध केवल मन और मस्तिष्क से है। प्रतिभा भी एक प्रकार का मनोविकार ही है। इन विकारों की परस्पर इतनी संलग्नता है कि प्रतिभा को अप्समार और विक्षिप्तता से अलग करना और प्रत्येक परिणाम समझ लेना बहुत ही कठिन है।
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