[PDF] Hindi Nivandh ka Vikash PDF Download

Hindi Nivandh ka Vikash PDF लेख का उद्देष्य :

1. विद्यार्थी हिंदी निबंध और उसके उद्भव की परिस्थितियों से परिचित होंगे।

2. विद्यार्थी हिंदी निबंध साहित्य के विकास से परिचित होंगे।

(1) निबंध की परिभाषा

आधुनिक युग में, जिसे गद्य का युग कहा जाता है, निबंध साहित्य का महत्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता चला जा रहा है। इसका मुख्य कारण यह है कि निबंध-लेखन के माध्यम से हिन्दी-गद्य की विभिन्न शैलियों में निखार और विकास की अनंत संभावनाएँ होती हैं। सत्य यह है कि निबंध ही गद्य की कसौटी है, क्योंकि निबंध-लेखक को स्वयं अपनी भाषा और शैली की शक्ति से यह प्रमाणित करना पड़ता है कि निबंध-लेखन का यह अनजाना पथ उसके लिए सर्वथा परिचित और अपना है। निबंध के संबंध में कभी यह कहा जाता था कि ‘निबंध अर्थात् मुक्त मन की मौज,

अनियमित, अपरिपक्व-सी रचना, न कि नियमबद्ध और न व्यवस्थित कृति’। बाद में कुछ लोगों ने इसमें स्वच्छन्दता, सरलता, आडम्बरहीनता, घनिष्ठता और आत्मीयता के साथ लेखक के वैयक्तिक आत्मनिष्ठ-दृष्टिकोण की उपस्थिति को भी स्वीकार किया। अनेक विद्वानों ने निबंध के संबंध में अपने-अपने मंतव्य रखे हैं, उन सबका निष्कर्ष यही है कि निबंध का कोई निश्चित विषय नहीं होता, आकार बहुत बड़ा नहीं होता, निबंध मन के स्वाधीन विचरण और चिंतन अर्थात अभिव्यंजना पर आधारित होता है और निबंध की शैली में संक्षिप्तता, रोचकता एवं प्रस्तुतिकरण में वक्रता होती है। सच तो यह है कि निबंध वह गद्य-रचना है, जिसके परिमित आकार में किसी वण्र्य-विषय का प्रतिपादन विशेष-निजीपन, स्वच्छन्दता, सौष्ठव, सजीवता और आवश्यक संगति तथा सम्बद्धता के साथ किया गया हो।

(2) भारतीय एवं पाश्चात्य धरातल पर निबंध का उद्भव

भारतीय साहित्य में संस्कृत और प्राकृत में निबंध शब्द का प्रयोग मिलता है। केवल एक विषय या उसके पक्ष-विपक्ष को लेकर कुछ छोटे-छोटे ग्रंथों की रचना की गई है- उन्हें हम निबंधों का पूर्वरूप कह सकते हैं। ‘चंद-छंद-वर्णन की महिमा’ और वल्लभाचार्य के द्वारा रचित ‘श्रृंगार-रस-मण्डन’ इसी प्रकार के ग्रंथ हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस को निबंध कहा है- ‘भाषा निबंध मतिमंजुल मातनोति’। प्राचीन साहित्य में जो निबंध नाम से संबोधित है, उसमें संघटन और तारतम्य मिलता है।

यूरोप में मोन्तेन, जो सन् 1533 से 1592 तक थे, को निबंध का जनक कहा जाता है। उनके ऊपर प्लूटार्क और सिनेका का प्रभाव पड़ा। फ्रांस में उनके निबंधों का प्रकाशन सन् 1580 में हुआ था। उनमें विषय-वैविध्य था, उनके निबंधों मंे नियंत्रण का घोर अभाव था और उनमें उनके मन की स्वच्छन्द उड़ाने थीं। अंग्रेजी में बेकन, जो सन् 1561 से 1626 के बीच थे, के निबंध सन् 1600 से पहले छपे थे। सत्रहवीं शताब्दी में बेन जाॅनसन, क्राउले, विलियम टम्पिल, अठारहवी शताब्दी के डाॅ. जाॅनसन, आॅलिवर गोल्डस्मिथ और उन्नीसवीं शताब्दी के मेकाले, कारलाइल, मैथ्यू आर्नल्ड, हैजलिट, रस्किन, आॅल्डस हक्सले, स्पेन्सर, इमरसन और बीसवीं शताब्दी के प्रीस्टले, लिण्ड, वेल्स आदि प्रमुख निबंधकार हैं। अंग्रेजी का निबंध-साहित्य अत्यंत विकसित हो चुका है।

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(3) हिन्दी निबंध के विकास का वर्गीकरण

हिन्दी निबंध के उद्भव और विकास को लेकर हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखकों में अनेक मतान्तर हैं। अपने-अपने साक्ष्य के आधार पर प्रत्येक इतिहास-लेखक ने हिन्दी निबंध के विकास की सीमाएँ अपने-अपने ढंग से निर्धारित

की हैं। इस पर भी कुछ बिन्दु ऐसे हैं, जिन पर सभी साहित्य-इतिहासकार एकमत हैं। यहाँ पर उसी सहमति के आधार पर हिन्दी निबंध के विकास का वर्गीकरण प्रस्तुत किया जा रहा है-

अ. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र युग ( सन् 1875 ई. से सन् 1900 ई. तक ), जिसे नवजागरण काल भी कहा गया।

ब. महावीर प्रसाद द्विवेदी युग ( सन् 1900 ई. से सन् 1925 ई. तक ), जिसे जागरण सुधार काल भी कहा गया।

स. रामचन्द्र शुक्ल युग ( सन् 1925 ई. से सन् 1950 ई. तक ), जिसे उत्कर्ष काल भी कहा गया।

द.शुक्लोत्तर युग ( सन् 1950 ई. से सन् 1970 ई. तक ), जिसे संक्रमण काल भी कहा गया।

य. आधुनिक युग ( सन् 1970 ई. से आगे ), जिसे नव संक्रमण काल भी कहा गया।

(4) हिन्दी निबंध का उद्भव एवं भारतेन्दु युग (Hindi Nivandh ka Vikash PDF)

आधुनिक युग में साहित्यिक-रूप की दृष्टि से पहचाने जाने वाले ‘हिन्दी निबंध‘ का उद्भव और विकास तत्कालीन युगीन परिस्थितियों की देन है। राष्ट्रीय जागरण की स्फूर्ति, उत्साह, उमंग, देशप्रेम, जनवाद, वैयक्तिक-स्वतंत्रता, अंतरराष्ट्रीयता, वैज्ञानिक-यंत्रों का प्रयोग, आवश्यकताओं की वृद्धि, गद्य का प्रचलन, मुद्रणकला का प्रचार, समाचार-पत्रों का प्रकाशन और उनके माध्यम से लेखक और पाठक में आत्मीय-संबंध की स्थापना, अंग्रेजी साहित्य का संपर्क आदि अनेक कारणों से साहित्य के अनेक रूपों के साथ निबंध रूप का भी आविर्भाव हुआ।

ऐसा माना जाता है कि हिन्दी गद्य का विकास भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के पहले हुआ था। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में लिखा है कि ‘राजा लक्ष्मणसिंह के समय से ही हिन्दी-गद्य की भाषा अपने भावी रूप का आभास दे चुकी थी। अब आवश्यकता ऐसे शक्ति-सम्पन्न लेखकों की थी, जो अपनी प्रतिभा और उद्भावना के बल पर उसे सुव्यवस्थित और परिमार्जित करते और उसमें ऐसे साहित्य का विधान करते जो शिक्षित जनता की रूचि के अनुकूल होता।’
इसी परिस्थिति मंे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का उदय हुआ। भारतेन्दु बाबू का युग निबंधकार का था। जीवन और साहित्य का टूटा हुआ संबंध फिर जुड़ा, वह गद्य के माध्यम से ही और गद्य में भी निबंध के माध्यम से। इस माध्यम के शिल्पी थे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र। उन्नीसवीं शताब्दी में जन्मे हिन्दी निबंध-रचना का संबंध गद्य से होने के कारण भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के साथ हिन्दी का नयायुग, आधुनिकयुग, गद्ययुग तथा निबंध-युग का

आरंभ होता है। भारतेन्दु की पत्रिका ‘हरिश्चन्द्र चन्द्रिका’ में हमें हिन्दी निबंध का प्रारंभिक रूप मिलता है। इसके साथ ही उस समय प्रकाशित ‘कवि वचनसुधा’, ‘हिन्दी प्रदीप’, ‘ब्राह्मण’, ‘आनंद कादम्बिनी’, ‘हिन्दुस्तान’ आदि पत्रों से निबंध के विकास की दिशा में प्रोत्साहन और सहायता मिली।

इन पत्र-पत्रिकाओं के पृष्ठों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र, बद्रीनारायण चैधरी ’प्रेमघन’, बालमुकुन्द गुप्त, ठाकुर जगमोहनसिंह, अम्बिकादत्त व्यास, लाला श्रीनिवासदास, केशवराम भट्ट तथा राधाचरण गोस्वामी, राधाकृष्णदास, किशोरीलाल गोस्वामी जैसे निबंधकारों की प्रतिभाएँ प्रकाश में आईं।

संयुक्त रूप से इन सभी के निबंधों की रचना की मूल प्रेरणा मनोविनोद और समकालीन समाज के नैतिक और राजनैतिक जीवन के स्तर को उच्च बनाने की भावना थी। अतः इनके निबंधों में जीवन, चेतना, समाजसुधार, राष्ट्रप्रेम, देशभक्ति, अतीत-गौरव का प्रेम, विदेशी-शासन के प्रति मधुर आक्रोश, हास्य-विनोद और व्यंग्यपूर्ण शैली में सजीव चित्र प्राप्त होता है।

व्यक्तित्व का सहज समावेश होने के कारण इस प्रारंभिक उत्थान में निबंधों की प्रमुख विशेषता आत्मनिष्ठता है। ये निबंध गंभीर और विवेचनात्मक न होकर हल्के रससिक्त, चुटकी और चिकोटि से भरे पड़े हैं। आमतौर से इन निबंधों की शैली आगमन या निष्कर्ष निकालकर शिक्षापूर्ण निर्देश और उपदेश देने की है। यद्यपि इन निबंधों की भाषा मुहावरों, लोकोक्तियों, तत्सम्, तद्भव और अरबी-फारसी-उर्दू शब्दों से भरी है, किंतु वह शिथिल है और व्याकरण की त्रुटियों से निर्दोष नहीं है।

डाॅ. लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय ने इस संबंध में कहा है कि ‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बद्रीनारायण चैधरी ‘प्रेमघन’, जगमोहन सिंह, अम्बिकादत्त व्यास, राधाचरण गोस्वामी, गोविन्द नारायण मिश्र आदि अनेक लेखकों की ऐसी रचनाएँ मिलती हैं, जिनमें निबंध के कुछ लक्षण अवश्य मिल जाते हैं, किंतु उन्हें निबंध न कहकर लेख कहना ही अधिक युक्तिसंगत होगा।….उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में निबंध-रचना का यदि

कोई वास्तविक रूप मिलता है, तो वह बालकृष्ण भट्ट और प्रताप नारायण मिश्र की रचनाओं में मिलता है। आगे चलकर बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में सन् 1900 से 1904 के बीच बालमुकुन्द गुप्त ने उत्कृष्ट कोटि के निबंधों की रचना की, जो ‘शिवशंभु के चिट्ठे’ और ‘चिट्ठे और खत’ में संग्रहीत हैं।  किंतु डाॅ. श्रीकृष्ण लाल का कथन है कि ‘भारतेन्दु-युग निबंध-साहित्य का प्राचीन-युग था, जिसमें भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र, राधाचरण गोस्वामी, बद्रीनारायण चैधरी ‘प्रेमघन’, बालमुकुन्द गुप्त तथा अन्य अनेक निबंधकारों ने निबंध-साहित्य में सफल प्रयोग किए। इन सभी लेखकों मंे निबंधकार के रूप मंे बालकृष्ण भट्ट सर्वाधिक सफल और प्रभावशाली लेखक हुए हैं।’

Hindi Nivandh ka Vikash PDF

कारण पं. बालकृष्ण भट्ट को हिन्दी-निबंध का जनक कहा जा सकता है। उनकी, प्रताप नारायण मिश्र, बालमुकुन्द गुप्त और अम्बिका दत्त व्यास की शैली इस युग के निबंधों का पूर्ण प्रतिनिधित्व करती हैं।

पं. बालकृष्ण भट्ट ‘हिन्दी प्रदीप’ नामक पत्रिका के संपादक थे। पं. बालकृष्ण भट्ट ने ‘चारुचरित्र’, ‘साहित्य जन-समूह हृदय का विकास है’, ‘चरित्र पालन’, ‘प्रतिभा’, ‘आत्मनिर्भरता’ जैसे विचारात्मक निबंध ; ‘आँसू’, ’मुग्धमाधुरी’, ‘पुरुष अहेरी की स्त्रियाँ अहेर हैं’, ‘प्रेम के बाग का सैलानी’, ‘हमारे मन की मधुप वृत्ति’ इत्यादि भावात्मक निबंध ; ‘संसार महानाट्य शाला’, ‘चन्द्रोदय’, ‘पौगण्ड या कैशोर’, ‘शंकराचार्य’ और ‘नानक’ जैसे वर्णनात्मक निबंध ; ‘आँख’, ‘नाक’, ‘कान’, ‘बातचीत’ जैसे साधारण विषयों पर विविध निबंध लिखें हैं, जिनमें उनकी रुचि-अरुचि, स्वभाव और उनके जनजीवन को देखने की दृष्टिकोण का हास्य एवं व्यंग्य की उध्दरण और उदाहरणपूर्ण चुटिली शैली में समावेश मिलता है।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के मित्र बद्रीनारायण चैधरी ‘प्रेमघन’ मासिक-पत्र ‘आनंद कादम्बिनी’ तथा साप्ताहिक-पत्र ‘नागरी नीदर’ के संपादक थे। इन पत्रों में उनके अनेक निबंध प्रकाशित हुए, यथा- ‘हिन्दी भाषा का विकास’, ‘परिपूर्ण प्रवास’, ‘उत्साह आलम्बन’ आदि।

आपकी भाषा में आलंकारिकता, कृत्रिमता और चमत्कार उत्पन्न करने का प्रयास मिलता है। एक बार उन्होंने रामचन्द्र शुक्ल की एक पंक्ति को सुधार कर इस तरह लिखा था-‘दोनों दलों की दल-दली में दलपति का विचार भी दल-दल में फंसा रहा।’ दलपति का विचार दलदल में फंसा या नहीं, किंतु इसमंे कोई संदेह नहीं कि ‘प्रेमघन’ जी की भाषा सदा इसी कृत्रिमता के दलदल में फंसी रही।

‘ब्राह्मण’ नामक पत्रिका के संपादक प्रताप नारायण मिश्र ने भी विभिन्न विषयों पर लेख लिखे। आपने जहाँ एक ओर ‘भौ’, ‘दाँत’, ‘पेट’, ‘मुच्छ’, ‘बुढ़ापा’, ‘होली’, ‘धोखा’, ‘मरे को मारें शाह मदार’ जैसे विनोद और सूझबूझपूर्ण निबंध लिखे हैं, वहीं दूसरी ओर उन्होंने ‘शिवमूर्ति’, ‘दान’, ‘जुआ’, ‘अपव्यय’, ‘काल’, ‘स्वार्थ’ जैसे गंभीर विषयों पर भी लेखनी चलाई है।

इसी तरह उन्होंने ‘नास्तिक’, ‘ईश्वर की मूर्ति’, ‘सोने का डंडा’, ‘मनोवेग’ आदि विषयों के साथ-साथ ‘समझदार की मौत है’, ‘तेढ़ जान शंका सब काहू’, ‘होली है अथवा होरी है’ जैसी उक्तियों पर विस्तार से प्रकाश डाला। मिश्र जी के निबंधों में मुहावरों का प्रयोग भी अत्यधिक हुआ है। कहीं-कहीं तो वे एक ही वाक्य में अनेक मुहावरों की झड़ी लगा देते हैं, जैसे-‘डाकखाने अथवा तार घर के सहारे बात की बात में चाहे जहाँ की जो बात हो, जान सकते हैं।

इसके अतिरिक्त बात बनती है, बात बिगड़ती है, बात आ पड़ती है, बात जाती रहती है, बात जमती है, बात उखड़ती है, बात खुलती है, बात छिपती है, बात चलती है, बात अड़ती है।’ सच तो यह है कि भाषा में स्खलन, शैली में घरूपन और ग्रामीणता, चंचलता और उछलकूद मिश्र जी की विशेषता है।

बालमुकुन्द गुप्त और राधाचरण गोस्वामी भारतेन्दु-युग और द्विवेदी-युग को मिलाने वाली दो कड़ियों के सदृश्य हैं। बालमुकुन्द गुप्त ने ‘बंगवासी’ और ‘भारत मित्र’ का संपादन करते हुए अनेक निबंध लिखे हैं।

आपके द्वारा लिखे गए ‘शिवशंभु का चिट्ठा’ के आठों चिट्ठे बड़े व्यंग्यपूर्ण एवं मधुर हास्य से पूर्ण शैली में देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत हैं। अम्बिकादत्त व्यास ने ‘धैर्य’, ‘क्षमा’ जैसे मनोवैज्ञानिक निबंध और ‘ग्रामवास’, ‘नगरवास’ जैसे वर्णनात्मक निबंध लिखे हैं।

भारतेन्दु-युग के प्रायः सभी निबंधकारों में वैयक्तिकता के साथ-साथ सामाजिकता का समन्वय मिलता है। उनके द्वारा लिखे गये निबंधों के विषय के क्षेत्र में व्यापकता और विविधता दृष्टिगोचर होती है।

हास्य-व्यंग्य का पुट है, किंतु वह उद्देश्यपूर्ण है किसी सामाजिक अथवा राजनीतिक विषमता पर चोट करना। गंभीर से गंभीर विषयों को भी इस युग के लेखकों ने सरल, सुबोध और मनोरंजक शैली में प्रस्तुत किया है।

उनकी भाषा-शैली में व्याकरण की दृष्टि से स्वच्छता या शुद्धता भले ही न हो, किंतु पाठक के हृदय को गुदगुदाने में पूर्ण समर्थ है। इस युग के निबंध शुष्क वैज्ञानिक निबंध नहीं हैं, अपितु वे आदर्श-साहित्यिक निबंध हैं।

(5) महावीर प्रसाद द्विवेदी युग

हिन्दी निबंध का द्वितीय उत्थान ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ तथा ‘सरस्वती’ के प्रकाशन से प्रारंभ होता है। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ में लगभग तीन सौ से भी अधिक अनेक प्रकार के उपयोगी, ज्ञान-विषयक, ऐतिहासिक, पुरातत्व-समीक्षा संबंधी निबंध और लेख लिखे, जो ‘रसज्ञ रंजन’, ‘लेखांजलि’, ‘संचयन’, ‘संकलन’ और ’अद्भुत आलाप’ जैसी पुस्तकों में संकलित हुए हैं। उन्होंने गद्य की अनेक शैलियों का प्रवर्तन तथा भाषा का संस्कार किया। उन्होंने अंग्रेजी के लेखक ‘बेकन’ के निबंधों का अनुवाद भी ‘बेकन विचार रत्नावली’ के नाम से प्रस्तुत किया, जिससे हिन्दी के अनेक लेखकों को निबंध लिखने की प्रेरणा मिली। सच तो यह है कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का आदर्श ‘बेकन’ थे। अपने निबंधों में ‘बेकन’ की भाँति वे विचारों को महत्व देते थे। यही कारण है कि ‘कवि और कविता’, ’प्रतिभा’, ‘कविता’, ‘साहित्य की महत्ता’ आदि आपके निबंध नए-नए विचारों से गुंफित हैं। आपके तथा इस युग के निबंधों में वैयक्तिकता का प्रदर्शन, सजीवता, रोचकता एवं सहज उच्छृंखलता का अभाव है। आपके निबंधों मंे भाषा की शुद्धता, सार्थकता, एकरूपता, शब्द-प्रयोग-पटुता आदि गुण तो मिलते हैं, किंतु पर्यवेक्षण की सूक्ष्मता, विश्लेषण की गंभीरता और चिंतन की मौलिकता बहुत कम है। कहीं-कहीं किसी व्यक्ति अथवा प्रवृत्ति से असहमत होने पर उनके प्रति तीखी प्रतिक्रिया व्यंग्य के माध्यम से ज़रूर प्रकट करते हैं। उदाहरण के लिए ‘कवि और कविता’ के लेख मंे उन्होंने छायावादी कवियों के संबंध में लिखा था ‘छायावादियों की रचना तो कभी-कभी समझ मंे भी नहीं आती। वे बहुधा बड़े ही

विलक्षण छंदों का या वृत्तों का भी प्रयोग करते हैं। कोई चैपदे लिखते हैं, कोई छह पदे, कोई ग्यारह पदे तो कोई तेरह पदे। किसी की चार सतरें गज-गज लम्बी तो दो सतरें दो ही अंगुल की। फिर ये लोग बेतुकी पद्यावली भी लिखने की बहुधा कृपा करते हैं। इस दशा में इनकी रचना एक अजीब गोरख धंधा हो जाती है। न ये शास्त्र की आज्ञा के कायल, न ये पूर्ववर्ती कवियों की प्रणाली के अनुवर्ती, न ये सत्समालोचकों के परामर्श की परवाह करने वाले। इनका मूलमंत्र है- ‘हम चुनी दिगरे नेस्त।’ इस उदाहरण में थोड़े हल्केपन का आभास तो हो रहा है, किंतु सदैव ऐसा नहीं हुआ है। द्विवेदी जी ने विषय के अनुरूप अपनी शैली में गंभीरता को भी स्थान दिया है। उदाहरण के लिए उनके निबंध ‘मेघदूत’ की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-‘कविता-कामिनी के कमनीय नगर मंे कालिदास का मेघदूत एक ऐसे भव्य-भवन के सदृश है, जिसमें पद्य-रूपी अनमोल रत्न जुड़े हुए हैं- ऐसे रत्न जिनका मोल ताजमहल में लगे हुए रत्नों से भी कहीं अधिक है।’

निबंध लेखन के क्षेत्र में महावीर प्रसाद द्विवेदी के साथ माधव प्रसाद मिश्र, गोविन्द नारायण मिश्र, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, गोपालराम गहमरी, अध्यापक पूर्ण सिंह, गणेश शंकर विद्यार्थी, सियाराम शरण गुप्त, गंगा प्रसाद अग्निहोत्री, जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी, यशोदानंदन अघोरी, चतुर्भुज औदीच्य, केशव प्रसाद सिंह, पार्वती नंदन, वेंकटेश नारायण तिवारी एवं पùसिंह शर्मा जैसे अनेक निबंधकार आए।

द्विवेदी युग के निबंध प्रायः प्रमुख साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक समाचार-पत्रों के लेखों, प्रचार-प्रपत्रों, पुस्तकों की भूमिकाओं और पुस्तकों के रूप में प्रस्तुत हुए। वास्तव में यह युग बढ़ती हुई राष्ट्रीय जागृति, विश्वप्रेम, सामाजिक एकता, भारत और पश्चिम के संपर्क, अतीत-गौरव, सांस्कृतिक पुनरुत्थान तथा हिन्दी भाषा के परिमार्जन एवं परिष्कार का युग था। अतः बीसवीं शताब्दी के इस प्रारंभिक दो-ढाई दशकों के निबंधों में विषयों की विविधता, विचारों की गंभीरता, विवेचना में वस्तुपरकता, भाषा की शुद्धता प्रचुरता से देखने को मिलती है। इस युग के निबंधकारों ने जीवन को पूरी तरह बहुत गहराई से देखने का प्रयत्न किया, इसलिए इस युग में लिखे गए निबंधों में हास्य और विनोद का भाव अपेक्षाकृत कम होता गया और व्यंग्य भावना के स्पर्श से तरल होता गया। इस युग के निबंधों में आत्मीयतापूर्ण अभिव्यक्ति का महत्व दिया गया।

द्विवेदी युग में नवीन सांस्कृतिक चेतना का उदय होते ही भाषा में संस्कृतगर्भित शब्दावली का प्रयोग होने लगा। इस युग के निबंधों में विषयों में विविधता का जितना विस्तार एवं प्रसार हुआ, उसकी तुलना में आत्म-व्यंजकता कम परिलक्षित होने लगी। निबंध लेखन में शैली की दृष्टि से इस युग में अनेक सूक्ष्म रूपों का विकास हुआ। इस युग के निबंधों को विशुद्ध भावात्मक और विचारयुक्त भावात्मक आदि दो वर्गों में

विभाजित किया गया। विशुद्ध भावात्मक निबंधों में सरदार पूर्ण सिंह के सभी निबंध धारा शैली में तथा आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के ‘दमयंती का चन्द्रोपालंभ’ जैसे निबंधों में विक्षेप शैली का यथार्थ निदर्शन परिलक्षित होता है। द्विवेदी युग के विचारात्मक निबंधों को मुख्य रूप से विवेचनात्मक, आलोचनात्मक और युक्तिसंगत नामक तीन वर्गों में विभक्त किया गया। स्वाभाविक रूप से इन निबंधों में इतिहास, समाज, विज्ञान और धर्म आदि विषयों पर गंभीर विवेचन मिलता है। एक तरह से यह युग विचारपरक निबंधों का युग रहा है। स्वरूप की दृष्टि से इस युग के निबंध ने गद्य-गीत और चरितात्मक कहानी के रूपों को भी अपने में समेटकर विकसित किया। रायकृष्ण दास की ‘साधना’, वियोगी हरि की ‘तरंगिणी’, लक्ष्मण गोविन्द आटले की ‘वर्षा विजय’ तथा गणेश शंकर विद्यार्थी का ‘प्रताप चरित’ आदि इसके उदाहरण हैं।

(6) समापन परिणति

आज हिन्दी के निबंध के जिस स्वरूप को हम देख रहे हैं, उस निबंध के स्वरूप और उसके विस्तार मंे निश्चित ही प्राचीन भारतीय साहित्य की अवधारणाओं के साथ-साथ आधुनिक युग की विकासशील परिवर्तनशीलता का प्रभाव भी है। समय की आवश्यकताओं और वैश्विक-साहित्य में निकटता के कारण विश्व की प्रत्येक भाषा के साहित्य में सकारात्मक परिवर्तन आ रहा है, हिन्दी भाषा का साहित्य और हिन्दी निबंध भी इस प्रभाव से अछूता नहीं है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने निबंध लेखन का जो सूत्रपात किया और पं. बालकृष्ण भट्ट ने उस निबंध को जो स्वरूपगत पूर्णता प्रदान की, उस निबंध को महावीर प्रसाद द्विवेदी ने शिल्प और भाषा के स्तर पर सुसंस्कारित किया। हिन्दी का निबंध भावना और विचार के धरातल पर नए-नए रूप ग्रहण करता रहा है। इस निबंध की प्रस्तुति में समय≤ पर नई-नई शैलियों का विकास और प्रयोग हुआ है। आने वाला समय अधुनातन प्रयोग की संभावनाओं को लेकर आ रहा है।

इस कार्यक्रम में ‘हिन्दी निबंध का उद्भव और विकास’ विषय के अंतर्गत हमने भारतेन्दु और द्विवेदी युगीन निबंध के विकास का आकलन किया है। अगले कार्यक्रम में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और उनके पश्चात् के आज तक के निबंध साहित्य के इतिहास पर विचार प्रस्तुत करेंगे।

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